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Jun
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(श्री भ .क .तीर्थ महाराज के व्याख्यान से उद्धृत , सोफिया )
“अगर फिर भी आपको लगता है कि आत्मा या जीवन के लक्षण, हमेशा जन्म लेते हैं और सदैव के लिए मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं ,तब भी आप के पास विलाप का कोई कारण नहीं है,ओ महाशस्त्रधारी! ” [*]
प्रश्न जिसकी चर्चा की गई है , वह है आत्मा की अनंतता , आत्मा की स्थिति. इस बातचीत के दौरान कृष्णा समझा रहे हैं,जीव आत्मा के विभिन्न पहलुओं को . इससे पहले उन्होंने कहा कि इस आत्मा को कोई नुकसान देना संभव नहीं है, यह जन्म नहीं लेती,यह मरती नहीं है – अनंत , हर जगह मौजूद है , अपरिवर्तीय है,यह अदृश्य, अचिन्त्य है और स्थिर है. तो शोक के लिए कोई कारण नहीं है . यहां तक कि अगर शरीर सीमित है, आत्मा तो सर्व परिपूर्ण है और फिर कृष्ण तो इस पंक्ति को कहते हैं : “यदि फिर भी आपको लगता है कि आत्मा हमेशा जन्म लेती है और हमेशा के लिए मर भी जाती है -तो यह सारा समय इन दो चरम सीमाओं के बीच घूमती रहती है – तो भी शोक का कोई कारण नहीं है . “यदि यह एक स्थायी नियम है -. कि जिस भी जीव का जन्म होता है और उसे मरना ही है , और यह नियम हमेशा के लिए है – तो वहाँ शोक करने का कोई कारण नहीं है. क्योंकि यह नियम है स्थायी , यह हमेशा ही रहा है, जो भी समाप्त हो गया है, यह फिर से होगा.
अगली पंक्ति में कहा गया है, जिसने जन्म लिया है,उसकी मृत्यु निश्चित है .और मृत्यु के पश्चात् जन्म लेना भी अनिवार्य है .अत: अपने कर्त्तव्य के अनिवार्य निर्वाह के लिए,शोक नहीं करो.
क्या तुमने जन्म ले लिया है? तब हमें निर्देशों के दूसरे भाग को लागु करना होगा .हमें प्रथम भाग पसंद है :अरे,हमने जन्म ले लिया है ! दूसरा भाग गले उतरना कठिन है : हमें मृत्यु का भी सामना करना है .लेकिन. जब तक हम सोचते हैं कि यह शारीरिक वास्तविकता ही असली वास्तविकता है तो वास्तव में मृत्यु का सामना करना दर्दनाक और भयानक है. क्योंकि वास्तव में हमारा शरीर हमारी मानसिक स्थितियों की अभिव्यक्ति है. जो तुमने चाहा, तुम्हें मिल गया – तो यह दूसरों का दोष नहीं है. लेकिन उन लोगों के लिए, जिन्हें अपनी आध्यात्मिक पहचान की तलाश है, इस सवाल को हल करना आसान है. सब कुछ जहां से लिया गया है वहीँ वापस करना है . भौतिक शरीर पदार्थ से है ,तो वापस पदार्थ को लौट जाएगी,. आत्मा परमात्मा से ली जाती है, वह वापस परमात्मा के पास लौट जाएगी. जीवन जीवन से आता है, चेतना चेतना से आती है, और प्यार , प्यार से आता है. यह अस्तित्व का सर्वोच्च समीकरण है.
जिसने जन्म लिया है,उसकी मृत्यु निश्चित है . पर मृत्यु के बाद जन्म लेना भी अनिवार्य है.इस प्रकार मृत्यु अंत नहीं है ,बल्कि स्थानांतरण है या अन्य अस्तित्व के स्तर के लिए द्वार है .निसंदेह एक प्रकार से यह अंत ही है ;पर यह एक आरम्भ भी है.निद्रा और जाग्रत चेतना की भांति . निद्रा से जाग्रत चेतना की ओर परिवर्तन है जाग्रति,ठीक है,और जाग्रत अवस्था से सुप्तावस्था की ओर- यह नीद में जाने की अवस्था है — यह क्रिया है,यह प्रक्रिया है .अवस्थाएँ हैं और संक्रमण हैं .कई लोगों के लिए जीवन जाग्रत चेतना की भांति है और कई के लिए मृत्यु निंद्रा,गहरी निद्रा की भांति है.जीवन से मृत्यु तक का पारगमन केसे होता है?यह मरण है.मरण गहन निद्रा की भांति है.ठीक?पर कहानी का केवल एक भाग लेते हैं , दूसरा भग क्या ही- मृत्यु से जीवन की ओर ? इसे क्या कहते हैं?जन्म या पुनर्जन्म ,हम कह सकते हैं की यह जाग्रति है.
अत:शोक मत करो ! तुम जिओ,मरो,शोक न करो.क्यूंकि अमरत्व सदेव है.यह हमारा मित्र है,सुमित्र.
“अत:अपने कर्तव्य के अपरिहार्य निर्वाह में शोक न करो ” अर्जुन एक योद्धा था और उसे जीवन और मृत्यु का सामना करना पड़ा. अत: यह समस्या उसके लिए बहुत कठिन और उग्र थी :ऐसा केसे होगा? कौन मरेगा ,कौन जिएगा ?!जीवन क्या है,मृत्यु क्या है?अधिकतर हम योद्धा नहीं हैं. हो सकता है कोई सड़क-छाप योद्धा हो, दूसरे कोई कम्पुटर पर युद्धविद्या के खेल /गेम खेल रहे हों.पर जीवन और मृत्यु की समस्या का सामना करना कठिन है.कम्पूटर के सामने बेठने पर तुम चेतना के एक विशेष स्तर पर पहुच जाते हो– रिक्तता. यह जाग्रत नहीं है,स्वप्न नहीं है- केवल खाली है,कुछ नहीं है.हम जीने और मारने की असली समस्या का सामना नहीं कर सकते.जीवन और मरण.
लेकिन रहस्यवादी अध्यापक, गुरु, कभी कभी कहते हैं: “ओह, तुम्हारी जाग्रत चेतना गहरी नींद के समान है , मेरे प्रिय! तुम्हें लगता है कि तुम जाग रहे हो , लेकिन.वास्तव में आप गहरी नींद में हैं “इसलिए चेतना के जाग्रत स्तर से भी हमें चेतना के उच्चतर आध्यात्मिक स्तर पर होना चाहिए .
कौन हमारी सहायता करेगा? नींद के लिए अलार्म घड़ी की मदद से आप एक अलग चेतना में आ पाएंगें. ध्वनि से यह तुम्हारी चेतना बदल देगी. उसी तरह, सौभाग्य से हमारी व्यक्तिगतअलार्म घड़ियां हैं , जो आध्यात्मिक ध्वनि से हमारी चेतना को जगा देती हैं.यह क्या है , वह कौन है? यह आध्यात्मिकता है. वह देवत्व की आवाज देगा,सिर्फ चेतना के एक स्तर से दूसरे तक हमें स्थानांतरित करने के लिए .यह एक आध्यात्मिक जागृति है.
हो सकता है आपने एक बुरा सपना देखा हो, एक बहुत बुरा सपना , लेकिन जब आप जाग रहे होते हैं ,तो आप ध्यान नहीं देते हैं . तुम इतने अधिक , चिंतित नहीं हो क्योंकि आप जानते हो , कि यह केवल एक सपना था. सिर्फ बुरे सपने की तरह – नहीं, नहीं, यह वास्तविकता नहीं थी , यह सिर्फ एक सपना था! उसी तरह अगर हम चेतना के मुक्त स्तर पर आते हैं तो , जो कुछ भी अनुभव तुमने अब तक किया है.उसे तुम स्वप्न की भांति ही समझोगे . एक बुरे सपने की तरह . अब हमें लगता है कि हमने जो अनुभव किया है, वही वास्तविकता है. लेकिन यह मत भूलना: यह भ्रम की केवल एक चाल है. यह वस्तुत: है नहीं. माया, भ्रम का मतलब है” वह नहीं”.यह वास्तविक लगता है, लेकिन यह असली नहीं है, यह एक सपना है.
और इस प्रकार के “सामान्य” चेतना -स्तर पर ,जब तुम भक्तों से मिलते हो तो वे एक अलग स्तर के बारे में तुम्हे बताते है और तुम उन्हें कहते हो:नहीं,तुम स्वप्न में जी रहे हो ,मेरे भाई. जो तुम कह रहे हो,वो तो एक स्वप्न है,सौंदर्य?एकरसता?नि:स्वार्थ सेवा?! ईश्वर-नृत्य और गायन?! आहा,तुम स्वप्न में जी रहे हो.तुम कुछ कह रहे हो…स्वर्णिम लुटेरों के बारे में ?!यह एक स्वप्न है .” पर वे कहते हैं: “नहीं,नहीं!यही वास्तविकता है!” चेतना के विभिन्न स्तरों वाले लोगों को एक दूसरे को समझना कठिन है.वस्तुगत यथार्थ व्यक्तिपरक है. पर कोई तो है जो इस सारे खेल को निर्देशित कर रहा है ,इस सारे खेल को .कृष्ण वंशी बजा रहे हैं और सब उसी के अनुसार नाच रहे हैं .
[*] „भगवदगीता ”२ .२६
Jun
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(श्री भ.क.तीर्थ महाराज से हुई चर्चा से उद्धृत , २६ .११ .२००६ , सोफिया )
तीर्थ महाराज : हमें एक व्यक्ति में क्या प्यारा लगता है ? आधे क्षण के लिए अपने लिए सोचो .
अन्य : मैं सोचता हूँ कि हम एक व्यक्ति में दिव्य गुण पसंद करते हैं, उसकी आत्मा , जो प्रेम, दयालुता और दया की एक अभिव्यक्ति है.
तीर्थ महाराज : मुझे लगता है कि आप अंतिम जवाब दिया है!
हरी -लीला : मेरे जवाब का पहला भाग वास्तव में ऐसा ही है. लेकिन हम, लोगों को पसंद करते हैं , जो विभिन्न तरीकों से हमें संतुष्ट करते हैं. सबसे अच्छे मामले में हम उनकी आत्मा को परमेश्वर की एक झलक के रूप में पसंद करते हैं.
दानी : जो हमारे पास नहीं है ,हम उसे पसंद करते हैं,
अन्य: क्या किसी को प्रेम करने के लिए कोई कारण होना चाहिए?बिना कारण …मुझे लगता है कि प्रेम किसी बाहरी तत्व से प्रभावित नहीं होता है.
कृपाधाम : दार्शनिक दृष्टिकोण से हमें भगवान से प्यार है. व्यावहारिक रूप से हम उस व्यक्ति केविभिन्न गुणों से आकर्षित होते हैं और हम विशिष्टता को ढूंढ रहे हैं, हमारा प्रेम अद्वितीय है.
तीर्थ महाराज : “सब लोग पवित्रता की तलाश में है, हर कोई प्यार खोज रहा है…” [*]
यमुना : उसने जो कहा है ,इस संबंध में, मुझे लगता है कि हम हमेशा छह दिव्य गुणों को पसंद करते हैं जब कोई उन्हें दर्शाता है – समृद्धि, शक्ति, महिमा, सौंदर्य, ज्ञान और त्याग. एक बार रामविजय ने मुझसे कहा: “आह, तुम जो चाहती हो वह है उत्तर और दक्षिण एक साथ !” किसी तरह हमारा प्यार इसी तरह का है,जब किसी में बिलकुल विपरीत गुण हों ,तब हम ऐसे व्यक्ति को पसंद करते हैं .
हरी -लीला : .आप ,विशेष रूप से खुद के लिए बात करें , कि आप ऐसा पसंद करती हैं ,न कि हम पसंद करते हैं .
यमुना : महाराज , मैं आपति करती हूँ,मुझे लगता है कि यह सब के लिए है I
रामविजय : हम आपत्ति करते हैं.हमें यह पसंद नहीं है
रुक्मिणी : ”सबसे पहले मेरा भी यह कहना है कि जो मैं पसंद करती हूँ :वह दिव्य अभिव्यक्ति है. लेकिन वास्तव में मुझे पसंद है या प्यारा लगता है ,वह ,लोगों की दुनिया को एक बेहतर और अधिक सुंदरजगह बनाने की क्षमता है, और वे लोग,जो मुझे मुझे बेहतर बनाते है ,बेहतर बनने के लिए उत्साहित करते हैं. यह सच नहीं है कि हम उनसे प्यार करते हैं , जो हमारे लिए सुख प्रस्तुत कर रहे हैं यह वेसा ही है “तुम मुझे जितना पीटते हो ,मैं तुमसे उतना ही अधिक प्यार करता हूँ.”
तीर्थ महाराज : बिलकुल सत्य है !
प्रेमा : हमें सौंदर्य पसंद है .
दानी : मुझे लगता है कि लोग कई विभिन्न तरीकों से सुंदर हो सकते हैं . लेकिन वह क्या है ,जो बदसूरत व्यक्ति को सुंदर या सुंदर व्यक्ति को बदसूरत बना देता है,वह उसकी क्षमता है–या इसी क्रम में अक्षमता – – दूसरों की देखभाल करने कीऔर दूसरों की सेवा करने की l
रामविजय : अन्य भाषाओं में पता नहीं , लेकिन बल्गेरियाई भाषा में एक शब्द है – उसके दो अर्थ है – शब्द है “ओबिचम ” (प्रेम) है. इसका एक अर्थ है, “मैं सॉसेज पसंद करता हूँ “. इसका पूरी तरह से मतलब है “शोषण”. और बिल्कुल वही शब्द प्रयोग किया जाता है जब मैं किसी को प्यार करता हूँ – जिसे करने के लिए त्याग और सेवा का होना आवश्यक है.
रुक्मिणी : यह वो दशा है ,जिसे कह सकते हैं “ मुझे प्यार हो गया है ”…
तीर्थ महाराज : अर्ताथ “मैं भ्रम मैं हूँ ”
रामविजय: लेकिन ” मुझे प्यार हो गया है” बहुत बार इस का अर्थ है “मैं जुड़ा हुआ हूँ ” – उदाहरण के लिए सिगरेट , या शराब से . यह भी प्यार है! यह सवाल तो बहुत मुश्किल है. क्योंकि एक शब्द और एक शर्त है लगभग पूर्ण दोहन करने के लिए और पूर्ण सेवा के लिए ही! यह मेरी राय है.
तीर्थ महाराज : धन्यवाद. इससे मुझे प्रेम की एक परिभाषा याद आती है कि प्यार शोषण कासबसे बुद्धिमान तरीका है. मुझे लगता है तुमने बहुत ही उल्लेखनीय उत्तर और राय दी है. कि हम आध्यात्मिक गुणों की पूजा करते हैं , कि हम दिव्य गुणों को पसंद करते हैं .कि हम परमेश्वर के मनुष्य में आत्मा के रूप में प्रतिनिधित्व को पसंद करते हैं – यह बहुत उच्च स्तर है. आमतौर पर हम लोगों को उनके गुणों के लिए पसंद करते हैं या उनकी संपत्ति के लिए. हो सकता है कि हम उन्हें अपने मूड के लिए प्यार करते हैं . आप बेहतर और बेहतर स्तर तक जा सकते हैं. आप उस व्यक्ति को नहीं, बल्कि पॉकेट/जेब को पसंद करते हैं .आप व्यक्ति को पसंद नहीं करते ,पर आप को पसंद है कि वह आप को पसंद करता है या पसंद करती है ,आप को व्यक्ति पसंद नहीं है , लेकिन आप की वह सेवा करता है ,यह आप को पसंद है . उसका बाहरी स्वरुप नहीं ,बल्कि आप उसे प्यार करते हैं . आप उसके अस्तित्व को प्रेम करते हैं,इस विचार के साथ यह रहता है. उसका अस्तित्व, यह कि वह मौजूद है – आप इसे प्यार करते हैं कि वह मौजूद है. ये प्यार के, बहुत उच्च स्तर hain. व्यक्ति की परम पहलू – लेकिन अगर हमारी दिव्य दृष्टि है, अगर हमारी आध्यात्मिक दृष्टि है, तो हम आत्मा से प्यार कर सकते हैं- व्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ पक्ष . उसका बाहरी रूप नहीं ,बल्कि सिर्फ आत्मा ही . और अगर हम आत्मा को देखते हैं, तो आत्मा के गुण हमें दिव्य गुणों की याद दिलाते रहेंगे जैसे सत – चित्त – आनंद, अनंत काल, ज्ञान और परम आनंद . हम इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जीवन का अर्थ है प्रेम .सत -चित- आनंद, जीवन का अर्थ परमानन्द है. जीवन(सत ) का अर्थ (चित ) प्यार (परम आनंद) है. तो यह बहुत पास है हमारे. लेकिन हम प्यार के भिन्न भिन्न स्तरको सैद्धांतिक रूप दे सकते हैं जब तक हम नहीं जानते कि यह क्या है, तब तक यह सिर्फ सिद्धांत है. चलो प्यार की एक व्यावहारिक परिभाषा ढूंढे – कि प्रेम सेवा है.प्रेम का अर्थ सेवा है. तो अगर हम व्यव्हार द्वारा अपने सिद्धांत की जाँच करना चाहते हैं – तो करें ! इसलिए यदि हम भगवान से प्यार करना चाहते हैं, हमें उसकी सेवा करनी है. और सबसे अच्छी सेवा है उसका महिमागान. यह धर्म से परे धर्म है…
[*] कृपाधाम दास द्वारा रचित गीत से उद्धरण
May
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(श्री भ.क. तीर्थ महाराज के व्याख्यान से उद्धृत , २६/११/2006, सोफिया )
हम भक्ति योग का अभ्यास कर रहे हैं.भक्ति का मतलब है,दिव्य प्रेम, योग का मतलब है,संबंध. सबको जुड़ना पसंद है.जब हमने इस धरती पर जन्म ले लिया है तो हम जुड़ गए हैं .हम एक ही हवा में साँस लेते हैं,समान साथ पर रहते हैं.एक सी परेशानियों को बांटते हैं.और इस सर्वोच्च आदर्श रूप के लिए हमें जीना चाहिए.
हम जुड़े हुए हैं.और यह जुडाव हम पर प्रभाव डालता है.जरा सोचो,विचार करो–आपके जीवन पर कितने प्रभाव पड़ते हैं?आप अपनी माता के पुत्र और अपने पुत्र के पिता हैं.आप अपनी पत्नी के पति हैं या अपने परिवार के मुखिया .आप देश के सेवक,मित्रों के मित्र,शत्रुओं के शत्रु हैं.हमारे विभिन्न रोल हैं,कितने सारे विभिन्न रोल .हमारा जीवन एक नेटवर्क (जाल) की भांति है.और यह नेटवर्क अलग अलग भूमिका हमारे लिए लाता है.
ये भूमिकाए हमें कुछ संस्कार देती हैं . और हम जुड़े हुए हैं हमारी भूमिकाओं से . यदि आप एक सूची बनाएं कि कैसी अलग अलग भूमिकाएँ और कैसे कई अलग अलग कार्यों से आप जुड़े हैं , यह एक लंबी सूची है. और सोचिए कि अचानक ही आप इस संस्कार को खो देते हैं तो बस लगता है, “मैंने अपने आप को खो दिया है!” जरा सोचो, आप अपने परिवार को खो देते हैं , अपनी नौकरी खो देते हैं आप अपने पहचान पत्र खो देते हैं – अचानक इतनी बड़ी मुसीबत! सामान्य स्थिति में लगता है कि हम इस तरह के हैं , हम ऐसे ही होते हैं, मैं यह हूँ, मैं उस तरह का हूँ – हमारी एक झूठी पहचान है . हम इन भूमिकाओं और नेटवर्क के प्रभाव में हैं. बहुत कम लोगों को उनकी वास्तविक पहचान की खोज के लिए तैयार हैं. और इससे भी बहुत कम लोग अपनी पहचान बदलने में सक्षम हैं.लेकिन एक बुनियादी नियम है. यदि आप एक प्रभाव से बाहर निकलना चाहते हैं, आप को, अपने आप को एक और प्रभाव में डाल देना है. यह एक महत्वपूर्ण संदेश है, कृपया, ध्यान दें ! अगर आप अपने दिल पर,अपने कंधों पर किसी भी तरह का बोझ महसूस करते हैं, यह उन संस्कारों से आता है ,जो आप में हैं . इसलिए इन संस्कार से अपने आप को बचाओ! लेकिन यह तभी संभव है जब आप अन्य साधन/प्रभाव के अधीन हो जाए . पर कड़वे साधन के बजाए मीठे नेटवर्क का चयन करें. भ्रम – या नेटवर्क का अनुकूलन – यह तुम एक छड़ी से सीख सकते हो . कृष्ण भी हमें सिखा सकते हैं , लेकिन उनकी छड़ी में छेद है. उनकी छड़ी उनकी बांसुरी है.
अत; दैविक अनुकूलता के अधीन आ जाएँ .दिव्य प्रभाव के अधीन आ जाएँ !जीवन.. जीवन क्या है? कुछ इसे पथ कहते हैं ,कुछ नदी कहते हैं.यह बहुत आशावादी है . जरा यथार्थवादी बनो . पीडाएं .अधिक निराशावादी कहेंगे : जीवन एक विफलता है. किसी ने मुझे कहा कहा कि दुनिया एक जहाज है जो जल्दी से डूब जाता है . हाँ, बिना दैविक प्रभाव के हमारा जीवन एक विफलता है.. तो, आप अपने जीवन में दिव्य प्रभाव आमंत्रित करें ! हम पीड़ा के लिए पैदा नहीं हुए हैं. अंतत: जीवन एक अवसर है , अनुभव लेने के लिए और हमारे जुडाव व्यक्त करने के लिए . खुद को दुखी करने के बजाए , आप एक प्रसन्न भाव में परम ईश्वर की सेवा कर सकते हैं . अपूर्णता के स्थान पर आप पूर्णता को प्राप्त कर सकें .
जीवन एक देवाधीन कार्य है. हम मेहमान हैं यहाँ. वांछित या अवांछित-मुझे पता नहीं. लेकिन हमें अपने घर की तलाश करनी चाहिए क्योंकि या तो हम घर की तलाश कर रहे हैं या हम घर की याद कर रहे हैं. क्या आपको लगता है कि आप घर पर हैं या आप चाहते हैं कि घर वापस आने का रास्ता मिल जाए, फिर से देवत्व के पास आना चाहते हैं? तो खुद को हवाले कर दो ,एक प्रसन्न भाव से स्वयं को प्रस्तुत कर दो-दैविक संरक्षण में .
अपने जुड़ावों को छोड़ देना मुश्किल है. लेकिन कृष्ण यह जादू कर सकते हैं
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May
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(श्री भ.क. तीर्थ महाराज के व्याख्यान से उद्धृत , २६/११/2006, सोफिया )
कृष्ण की रुचि इसमें नहीं है कि आप उन्हें क्या देते हैं , क्योंकि व्यावहारिक रूप से सब कुछ उनका ही है | लेकिन आप स्वयं के लिए क्या संरक्षित करना चाहते हैं,इसमें उनकी रुचि है | यह कैसे होता है ? हमने
कहानी में कई बार चर्चा की है कि कृष्ण माखनचोर है, वे मक्खन चुराते हैं | वे माँ यशोदा के भंडार से मक्खन चोरी करते है | लेकिन वे उस से संतुष्ट नहीं है, वे पड़ोसियों के यहाँ जाते हैं |
. पड़ोसियों से भी वे उनका माखन का भंडार छीनते हैं |
हम कहानी को विस्तृत कर सकते हैं, लेकिन अभी हम सार पर ध्यान केंद्रित करते हैं| तब पडोसी महिलाऐं परेशान हो जाती हैं और माँ यशोदा से शिकायत करती हैं : “अरे! आपका बच्चा हमारे घरों में आता है और वह हमारा मक्खन चोरी करता है | “तब यशोदा कृष्ण को दंड देने की कोशिश करती हैं :
” तू पड़ोसियों के यहाँ क्यों जाते हो? हमारे यहाँ तेरे लिए पर्याप्त मक्खन है|
तुझे पता है कि मेरे घर में मक्खन तेरे लिए रखा है |”
कृष्ण, उस माखन से जो उनके लिए रखा गया है ,संतुष्ट नहीं हैं | वे ,वह मक्खन चाहते हैं जो उनसे छुपा हुआ है, जो गोपियों ने “स्वयं के लिए” बचा कर रखा है| हम इस पर सहमत हैं कि
मक्खन पशुओं के साम्राज्य का सार है. और पशु गोपालों के जीवन का सार हैं | अत: यह उनके जीवन का सार है ! वे इसे बनाए रखना चाहते हैं,छुपाना चाहते हैं,भंडार में रखना चाहते हैं |, यह छुपाने के लिए, यह स्टॉक में रखना चाहते हैं |लेकिन कृष्ण आयेंगे और इसे हड़प जायेंगे |
इसलिए सावधान रहना! कृष्ण एक माखनचोर हैं| अगर आप संरक्षित करना चाहते हैं,
आप अपने जीवन के सार छुपाना चाहते हैं, वह आ जाएगा और
इसे आप से छीन ले जायगा | बेहतर है हम ही उसे दें दे ! क्योंकि हम जो नहीं देगें ,वह
खो जाएगा| लेकिन यदि आप देते हैं, तो आप केवल अपने लगाव को खोते हैं |
एक माँ के लिए बच्चे में कृष्ण को देखने का सुझाव दिया गया है या अगर यह
बच्ची है, तो राधा | तो आप उसके माध्यम से कृष्ण से जुड़ जाएंगें | यह हमारा दृष्टिकोण होना चाहिए: भगवान इस मानव द्वारा मेरे पास आ गए हैं |ए. यह हमारा दृष्टिकोण होना चाहिए: भगवान में मेरे पास आ गया है
इस व्यक्ति को. इसलिए पति परिवार के देवता है. लेकिन
पत्नी परिवार की देवी है! कौन सशक्त है – देवता
या देवी? मैं अधिक विस्तार में नहीं जाऊंगा , आप अपने लिए स्वयं सोचें | यदि मन से हमारी यह मान्यता है कि मेरे लिए मेरे साथ वाला व्यक्ति भगवान के समान है — यह मानव संबंधों का एक अलग स्तर है | लेकिन तब आपको लगता है कि: “अरे, मेरा बच्चा
एक देवता की तरह. व्यवहार नहीं करता है | “या फिर आप समझ जायेंगे कि” हमारे
घर के भगवान , मेरे पति, ऐसे नहीं हैं ,वे इस स्तर पर नहीं हैं ! पर यह उनका काम है:आप का काम है ,इस विचार को बनाए रखना |
मानवीय आसक्ति को छोड़ देना –एक बहुत बड़ा काम है | . लेकिन यह भी बहुत अच्छा है, कि हम लगाव के पथ का अनुसरण कर रहे हैं | यदि हम
केवल परित्याग करते हैं तो भक्ति कड़वी हो जाएगी |लेकिन सब लोग
कहते हैं कि भक्ति प्यारी है और यह कैसे मीठी है? क्या है
इस मिठास का कारण है? लगाव है कारण | यह राग है,राग भक्ति, अनुराग भक्ति और अगर हम जुड़े हैं और कहीं ऊँचे स्तर पर ,
उच्चतर कुछ है, तो निम्न सम्बन्ध छोड़ देना बहुत ही आसान है| यदि आप मर्सिडीज में आ सकें तो
अपनी साइकिल को भूल जाते हैं | खैर, यह उदाहरण काफी सही नहीं है, क्योंकि अच्छा है कि हम मर्सिडीज से बाहर निकलें और साईकिल कि सवारी करें — यह नैतिक और पर्यावरण ,दोनों रूप से सही है – लेकिन मुझे लगता है कि आप समझ गए हैं कि मेरा क्या मतलब है| इसलिए यदि आप के पास एक बेहतर विकल्प होता है, यदि आप का स्तर ऊँचा है,तो निम्न स्वाद को छोड़ देना सरल है | “गीता “में कहा गया है
: “आप निम्न रस( स्वाद) को छोड़ सकते हैं , अगर तुम्हें एक झलक मिल जाए ,उच्च स्तरीय स्वाद के एक छोटे कण की अनुभूति हो जाए | ”
तो आसक्ति का त्याग मत करो , उसका बदलाव करो| एक नश्वर मानव से
उसे भगवान के लिए हस्तांतरित कर दो | किया जा रहा है. लेकिन इसकी कैसे देखभाल हो केसे हो कि वहां भी उपस्तिथि हो पर आसक्ति न हो ? गृहस्थ जीवन की यह कला है | किसी भी उम्मीद के बिना अपने कर्तव्य प्रदर्शन करना| यह है तो
मुश्किल है| लेकिन माताओं, आप को इसके बारे में पता है| हम इसे कर सकते हैं यदि हम उस स्थिति से,जिसमें हम हैं, थोडा दूर रहें |तो हम पूरी तरह से लगे हुए हैं और यदि खुद के बारे में भूल जाते हैं तो जाओ कर रही है, तो यह अधिक कठिन है | लेकिन यदि आप एक दूरी रखते हैं , तो आप चित्र को देख सकते हैं| तो आप तैयार हो सकती हैं कि अब मैं अपने बच्चे को बढ़ा कर रही हूँ ,उसके नितम्ब साफ करती हूँ और वह, बीस साल बाद कहेगा : “नहीं माँ,. मैं अपने रास्ते जा रहा हूँ | ” फिर भी, अब आप को क्या करना है?नितम्ब साफ करना है-कोई बात नहीं | हमारा आदर्श होना चाहिए , एक विनम्र सेवक| तो अगर जीवन मुझे एक विनम्र सेवक बनने का मौका देती है तो -इसमें क्या ग़लत है?
हमारी चेतना के स्तर को ऊपर उठाकर हम इसे बेहतर कर सकते हैं| अत: स्वतंत्रता दे| क्या आप अपने आप के लिए स्वतंत्रता चाहते हैं? हमें जरूरत है| हम शायदअपने आप को प्रतिबद्ध करते हैं है, लेकिन हमारी अपनी मर्जी से. “मैं यह करना चाहता हूँ.” लेकिनहम अपनी पसंद की स्वतंत्रता चाहते हैं| है ना? तो यह दूसरों को दो| जो तुम खुद के लिए चाहते हैं, यह दूसरों को उपलब्ध कराओ|
आसक्ति से कष्ट होगा , प्यार से पीड़ा होगी| यही दिव्य गणित है| एक समीकरण|
अतएव , कृपया, जो तुम्हारे पास है,उसे बढाओ, क्योंकि यह एक खजाना(कोष) है.
Apr
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( भ .क. तीर्थ महाराज के व्याख्यान से उद्धृत , २६ .११ .२००६ , सोफिया )
मांग अधिक है| कृष्ण थोड़े से संतुष्ट नहीं है | वह पूरी बात करना चाहते हैं | लेकिन फिर भी वे सहनशील हैं ताकि हम इन बिन्दुओं को समझ सकें | याद रखो , सर्वप्रथम वह आपको ,अपने लिए केवल थोडा जल,पुष्प,फल का चढ़ावाचढाने के लिए आमंत्रित करते हैं ….यह मितव्ययी धर्म है |किफायती|”अरे,में इतना ही कर सकता हूँ |ईश्वर के लिए थोडा जल — बढ़िया! यह कोई बड़ा काम नहीं है |यह तो मेरे लिए है , बहुत खर्चीला धर्म नहीं है |”पर अगले ही छंद मैं वे कहते हैं ,”और बाकि सब कुछ …” मैंने सुना है कि यहाँ आपके बॉस तोदोर झिव्कोव हाथ से एक खास इशारा करते थे , है ना ?उसने इसे कृष्ण से सीखा था |
पहले वह कहता है: “थोडा सा पानी”, उसके बाद “और बाकी सब कुछ – जो कुछ भी आप करते हैं ,जो कुछ भी त्याग करते हैं , जो कुछ भी आप देते हैं, आपके पास जो कुछ भी है – बस इसे मुझे दे दो!” वह इसी प्रकार का है, वह आपकी मदद करता है देने के लिए | उसे हरी बुलाते हैं – जो सब ले हटा है |वह सब कुछ दूर ले जायगा- सही में हमारी संपत्ति नहीं,बल्कि मोह को दूर ले जाएगा |
और इस संबंध में कृष्ण एक अच्छी मदद हैं,वह गुरु कहे जाते हैं | एक बार भक्ति सम्बद्ध एक कंपनी थी – वास्तव में मेरे भाईयों की | वे एक फार्म में रह रहे थे, और तुम्हें पता है कि नवयुवकों की तरह , उन्हें कारों से लगाव था | आखिर में उन्होंने एक पुरानी “वोल्गा ” खरीदी – जो सही में एक कचरे का डब्बा थी, इसे चलाना असंभव था | तो, ज्यादातर समय, कार के आसपास पूजा होती थी, सब लोग पूजा करते थे – हो सकता है कि यह कुछ समय बाद चलने लग जाए | अगले हफ्ते गुरुदेव आये और वह समझ गये कि उन्होंने एक कार खरीदी थी| उन्होंने तुरंत कहा: “क्या? एक खेत में कार? ! इसे तुरंत बेच दो ! “कुछ समय बाद वे फिर आये और फिर तुम्हें पता है, कुछ समय गुजरने के बाद ,उन्हें फिर काम करना है तो वे फिर से एक कार लेते हैं – एक और” “वोल्गा, लेकिन वह पहले से ही चल रही थी | तो फिर गुरुदेव [*] आये और कहा: “क्या? एक “वोल्गा “? आप एक बेहतर क्यों नहीं खरीदते हैं? “क्यों? क्योंकि वहाँ पहले लगाव था: “हे, हमें एक कार की जरूरत है?” दूसरी बार ,वहाँ एक नकली विनम्रता था:. “वोल्गा ” काफी होगी “गुरु” आते हैं है और सारे गलत विचारों में कटौती कर देते हैं – या तो आपके लगाव को , या आपकी झूठी विनम्रता को काट देते हैं | . कृष्ण की तरह: पहले वह आपसे अच्छा व्यवहार करते है और फिर वे आपको योग्य ठहराते हैं |
यह आसान है अगर दान का यह भाव , बाँटने का भाव , एक भक्त में शुरू से ही प्रकट होता हो तो | और शारीरिक रूप से इसे देना आवश्यक नहीं है| यदि आप करने के लिए तैयार हैं – तो खेल खत्म , तो आपने सबक सीख लिया है| वासुदेव की तरह – जब कृष्ण का जन्म हुआ उन्होंने क्या किया? उन्होंने मन ही मन में – लाखों गायों का दान दिया | क्यूंकि जब एक लड़का पैदा होता है तो आमतौर पर माता पिता धन वितरित करते हैं | . वे ब्राह्मणों को दान देते हैं , जरूरतमंदों को देते हैं, क्योंकि यह एक शुभ क्षण है | लेकिन वे एक जेल में रह रहे थे, तो वास्तव में उनकी पहुँच अपनी गायों तक नहीं थी , तो उन्होंने क्या किया? उन्होंने मन में दान किया |
हम कह सकते हैं: “वाह, यह बहुत ही किफायती है! यह बात है! मन ही मन में दान करना काफी है| इसका तो समान मूल्य है ,तोमैं अपनी गायों को रख सकता हूँ ,संभाल सकता हूँ | लेकिन मैं मन से बहुत उदार हूँ |”अपमानित कैसे और अभी कितनी गिरी हुई स्थिति है, मैं समझ गया! दान करना , जानते हैं – भारतीय लोगों को यह बहुत अच्छी तरह से पता है: “यह मेरा कर्तव्य है |यह उसके लाभ के लिए नहीं है, यह अपने लाभ के लिए है| एक बार मैं एक पति और पत्नी से मिला – पति भारतीय था और पत्नी हंगरी से थी | वे मंदिर आये थे और जाने से पहले उन्होंने थोड़ा चावल एकत्र किया और कुछ और भी भेंट हेतु,दान हेतु एकत्र किया –यह बाद में महिला ने मुझे बताया | मैं पति के साथ बात कर रहा था – हम एक बहुत अच्छी चर्चा कर रहे थे – और अंत में उन्हें जाना था| और आप जानते हैं, जब पति कमरे से बाहर आया , पत्नी ने उसे बताया, “यह वो उपहार है जो आप देना चाहते हैं |” आदमी ने कहा: “ठीक है, पर बेहतर है कि हम इसे न दें | इस व्यक्ति को कुछ भी जरूरत नहीं है !”मैं हैरान था! कैसा छलिया मन ! मैं हैरान था! शब्दहीन !
ऐसे छलिया मन वाले मत बनो! अगर आप ने कुछ कहा था – कि यह तुम्हारे लिए है – तो इसे करो ! अपने वचन पर रहो |अगर आप ने कहा था: “मेरा घर, मेरा मकान , मेरा शरीर, मेरा मन आप के लिए है” – तो यह है! धोखा मत करो! पाना अच्छा है, मिलना बहुत प्यारा है |लेकिन देना और भी प्यारा है | किसी को खुश करना – यह असली खुशी है | और अगर इस थोड़े से त्याग , थोड़े से समर्पण से हम कृष्ण को खुश कर सकें तो सारा ब्रह्मांड प्रसन्न हो जायगा |
तो एक के बाद एक , पहले हमें देने की स्थिति पर आना है | लेकिन यह सुझाव दिया गया है कि अगर आप इतने “गरीब” हैं, कि आप के पास कुछ भी नहीं हैं , कम से कम आप कुछ राख ही दे दे |राख सब दे सकते हैं| “कुछ” दे दो! अपना समय दीजिए| अपना ध्यान दीजिए| कृष्ण भक्ति ,धन का प्रश्न नहीं है! हमें इसे इस तरह से समझना चाहिए कि मैं इसे खुद के लिए संरक्षित नहीं करना चाहता| यदि अंतत:यह एक अच्छी प्रक्रिया है कि हम सब कुछ दे दें जो कि हमारे पास है | और *वैष्णव *, शास्त्र, *गुरु* हमें यह सीख देते हैं | ज़रा सोचिए कि गुरुदेव आते है और कहते है: “अब तुम *सब कुछ* त्याग दो और अपने जीवन को *पूरी तरह* समर्पित कर दो , अपने सभी भौतिक मोह को छोड़ दो ! ” वह आते है और आपको तुरंत बताते है,- क्या आप ऐसा कर सकोगे ? शायद हम ऐसा नहीं कर सकते. खैर, मैं आपके गुण नहीं जानता, लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता हूँ | इसलिए वे एक क्रमिक प्रक्रिया का अनुसरण करें| *गुरु* आते हैं और आपको बताते हैं : “. इतनी बार जाप करो ” या फिर वे कहते हैं: “पौंछा लगाओ , लकड़ी काटो , पानी ले आओ.”! हम यह कर सकते हैं ! यह प्रशिक्षण की प्रक्रिया है: जब गुरु कुछ कहते हैं, हमें कहना चाहिए: “हाँ ! ” कितना भी मुश्किल हो – हमें कहना चाहिए: “हाँ!” क्योंकि अंततः अगर वे कहेंगे: “और अब तक अपने सभी मोह – माया दे दो “, हम कहें: “हाँ!” ठीक है, क्योंकि हम “हाँ” कहने के लिए और काम करने के लिए तैयार किए गए हैं ! गुरु तो एक अच्छे प्रशिक्षक है, हमेशा आपको बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं | ओलिंपिक खेल आ रहे है, तो आप को अपनी श्रेष्ठतम क्षमता से प्रदर्शन करना है|
देना आनंद है | त्याग आनंद है,श्रीला श्रीधर महाराज कहते हैं | सुंदर वाक्य ! त्याग आनन्द है!
[*] ब .अ . नारायण महाराज
Apr
22
(из лекции Б.К.Тиртха Махараджа, 26.11.2006, София)
“Манаса дехо гехо – мой ум, мой дом, моё тело – все посвещаю, как жертву Тебе.*
Поклоняясь Тебе, я отдаю всё в Твоих лотосовых ног. Ты есть всевышний Бог. Прошу тебя, прими меня как сторожевую собаку на пороге твоего дома”.
Эта песня являеться плач Бхактивонада Тхакура. Он ставит себе очень высшую цель. ”Всё что у меня есть, я предоставляю Тебе. У меня есть ум, тело, дом. Всё я отдаю тебе. Ничего я не оставляю себе”.
Красивые слова! Сердце в полете – ура, этого то я и хотел сделать! Но, скажем пришло время вам самим пригласить кого-нибудь в гости не только на выходной день, … уже начинаються трудности. – „Я отдаю тебе свой дом” – не уж то и в самом деле это имелось ввиду?!”. ”Посвящаю тебе свое тело” – и в самом деле понимаете что означает это?!”. ”Отдаю тебе свой ум”. Понимаете?! ”Отдаю тебе свой ум. Ум уже не являеться моей собственностью – я отдаю его Тебе.” Что означает предоставит свой дом? Тогда ты становишься гостем в своем собственном доме. В лучшем случае сделаешься слугой. Но дом уже не будет твоим. Поэтому Бхактивинода говорит: „Держи меня у двери, как сторожевой собаки”. Собаку в дом не пускают, только вне дома. Так что, если хотим предложить свой дом Кришне, должны быть готовы жить вне дома.
И так как мы являемся гостями этой вселенной, кто-то являеться хозяином. Кто же хозяин – в конце концов это Бог. Мы живём в Его доме. Это не так, что он живёт в нашем доме, а наоборот мы живём в его доме.
Прежде всего предлагаете свой дом – это просто, так как это что то вне вас. Предложить что то, чем не являемся мы – это лекго. А потом Бхактивинода Тхакура говорит: ”А теперь я предлагаю тебе своё тело. Даже моё тело не являеться моей собственностю”. Надо быть более взыскательный, чтобы пойти на такую жертву. Ведь наше тело нам очень дорого. Оно являеться нашим инструментом, с помощью которого выражаем самих себя. Мы чувствуем, что это самое важное, что мы имеем. Мы так гордимся, что оно у нас есть. Предложить его – это предложить всё что мы делаем как служение Богу. Разве легче предложить тело, чем свой дом? Нет – труднее. Но самое трудное – это предложить свой ум.
“Я дарю тебе свой ум.” Как можем предложить свой ум? Как можем посвятить свой ум чему нибудь? Дефиницией любви может являться: ”Я часто думаю о тебе.” Это являеться способом дарить свой ум.” Не о себе думаю, а думаю о тебе из-за эмоциональной связи с тобой.” Также как собака связана со своим хозяином ремнем, таким же образом наш ум должен быть привязан к Кришне цепью Божественной любви.
„Мой ум, моё тело, мой дом – отдаю их Тебе. Бери меня как сторожевую собаку на пороге твоего дома. Будешь держать меня, привязанным короткой цепью и кормить меня,а я всегда буду сторожить у порога. Кто выступает против Тебя, я не пущу в твой дом, буду сторожить их на дворе.” Собака не считаеться сколь нибудь высшим животным. Но некоторые хорошие черты характера можно научиться у него. Например, верность хозяину. Конечно, собаке нужно показать кто хозяин. В самом начале его нужно победить лишь раз. Но потом она будеть уже знать. ”Он босс.” И уже чтобы вы не делали, она вас всегда будет следовать. Даже если вы будете бить её, она всё равно будет любить вас ещё больше, будет повиноваться всё больше. Так, что если ты собака перед дверью Кришны, пожалуйста будь готов получить своё наказание за неправильное поведение. Но будешь всегда получать прасадам. Хозяин позаботиться о тебе.
“И будешь держать меня с короткой цепью.” Короткая цепь означает, что ты находишься около своего хозяина. Также как преданный. Преданный может находиться на длинной цепью; или на короткой цепью. Но если отсутсвует полная преданность, ни то, ни другое не будет полезным. Я видел, все мы видели из вайшнавской истории, что некоторые бхакты получают большую свободу – могут делать то что им хочеться. Учитель у них настолько толерантный, что они получают полную свободу. Но тогда они прекращают некоторые из своих духовных практик. Другие находяться на совсем короткой цепью – и делают то же самое. Так что не имеет значения короткой или долгой являеться цепь, значение имеет лишь уровень вашей преданности.
„Те, которые против Тебя, не пущу войти, буду держать за пределами дома. Ежедневное питание будет у меня остатки прасадама Твоих бхакт. Безконечно счастливый, я устрою праздник этими остатками! Несмотря на то лежу или сижу, я буду непрерывно медитировать на Твоих лотосовых ног. Всякий раз, когда ты меня призовёшь, буду прыгать танцевать и приходить к Тебе. Хотя я небрежно отношусь к своей жизни, буду счастлив всё время. Ты мой единственный защитник.”
Хотя эти слова являються интерпретацией другой песенки, если мы действительно предложим своё тело, ум и дом, таковым следовало бы быть наше положениние. Мы не стремимся к престижной позиции, такой же как у Брахмы, „но если нужно родиться снова, хотел бы жить в доме какого-нибудь ваишнавы. Меня не привлекают материальные наслаждения или освобождение. У меня есть одно одиннственное желание – быть Твоим вечным слугой жизнью за жизней.”
Поэтому Бхактивинода Тхакура молиться таким образом – чтобы напомнить нам принять смиреённую позицию, предлагать всё, что у нас есть и жить в этом настроении преданности.
*Отрывок из поэмы „Манаса дехо гехо”, уточненны дальше с отрывки из поэмы „Сарвасва томар чаран сампия” из цикл песен „Шаранагати” из Бхактивинода Тхакура.
Apr
22
( भ. क . तीर्थ महाराज के व्याखान से उद्धृत २६ .११ .२००६ , सोफिया )
“मनसा देहो गेहो – मेरा मन,मेरा घर ,मेरा शरीर – ये सब मैं आप को अर्पित और समर्पित करता हूँ | आप परम प्रभु हैं | कृपया मुझे अपने दरवाजे पर रक्षक -श्वान ( रक्षा करने वाला श्वान) के रूप में स्वीकार करें |”
यह गीत भक्तिविनोद ठाकुर का विलाप है | वे बहुत स्तरीय लक्ष्य रखते हैं |”मेरा जो कुछ है,वह आप को समर्पित है |मेरा शरीर है ,बुद्धि है,घर है ,सब कुछ आप को देता हूँ| मैं अपने लिए कुछ नहीं रख रहा हूँ |”.
.”सुन्दर शब्द ! हमारा ह्रदय उड़न पर है -हाँ बस यही है ,जो मैं करना चाहूंगा ! पर जब समय आता है और आपको किसी अतिथि को एक सप्ताह से अधिक बुलाना पड़े और उसे सहना पड़े ,तो यह बहुत मुश्किल होने लगता है | “मेरा घर आप के लिए है “– क्या सही में, आप का यही मतलब है ? “मेरा शरीर आपको समर्पित है”–क्या आप को समझ है कि इसका मतलब क्या है?” मैं अपनी बुद्धि अर्पित करता हूँ,मेरा मस्तिष्क अब मेरा नहीं है — आपको समर्पित है |
आप अपना घर अर्पित करते हैं – इसका अर्थ क्या है ? क्या ये ये की आप अपने ही घर में मेहमान होंगे या बहुत हो तो सेवक | अब आप मालिक नहीं हैं |इसलिए भक्तिविनोद कहते हैं ,” मुझे अपने द्वार पर रक्षक-श्वान सम रखें |”श्वान घर में नहीं रहता ,घर से बाहर रहता है |तो यदि हम कृष्ण को अपना घर अर्पित करते हैं — घर से बाहर रहने के लिए तैयार रहो |
हम सभी इस जगत में अतिथि हैं ,तो कोई तो मेज़बान है |वह पोषक कौन है — वह है परमपिता परमात्मा | हम उसके घर में रह रहे हैं |ऐसा नहीं है कि वह हमारे घर में रह रहा है ,बल्कि हम उसके घर में रह रहे हैं |
पहले आप अपना घर प्रस्तुत करते हैं — यह अति सरल है क्योंकि यह बाहरी है | जो हम नहीं है ,उसे पेश करना सरल है | और तब भक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं .”पर में तो अपनी देह भी प्रस्तुत करता हूँ |मेरा तो शरीर भी मेरा नहीं है|”यह ज्यादा अपेक्षा वाला त्याग है | शरीर तो हमारे कितने समीप है |अपने आप को अभिव्यक्त करने का यह साधन है |यही है जिसे आप अपना प्रथम अधिकार समझते हो|इस देह पर हमें कितना अभिमान है |प्रस्तुत करना अर्थात आप अपनी समस्त गतिविधियाँ दैविक सेवा में अर्पित करते हो |तो क्या सरल है — घर को अर्पित करने कि बजाये देह अर्पित करना ? यह अधिक मुश्किल है |पर सबसे कठिन तो मन है |
मैं,आपको अपना मन अर्पित करता हूँ |”मन को कैसे अर्पित करें?आप मन को कैसे किसी को अर्पित कर सकते हो ? आप मन को किसी को कैसे समर्पित कर सकते हो? प्रेम की एक परिभाषा है,”मैं तुम्हें बार बार याद करता हूँ |” यह तरीका है अपने मन को अर्पित करने का | “मैं अपने बारे में नहीं ,बल्कि भावात्मक लगाव के कारण ,आप के विषय में सोचता हूँ |” जैसे एक श्वान पट्टे से अपने मालिक से जुड़ा होता है ,उसी प्रकार हमारा मन दैविक प्रेम की जंजीर से कृष्ण से जुड़ा रहना चाहिए |”
“मेरा मन,मेरा घर ,मेरा शरीर,आप को समर्पित है |अपने दरवाजे पर कुत्ते की भांति मुझे रखो |मुझे छोटी जंजीर से बांधे रखोगे और मुझे खाना खिलाओगे और मैं तुम्हारी देहरी पर पड़े रहूँगा |जो तुम्हारा विरोध करेंगें ,उन्हें मैं प्रवेश नहीं करने दूंगा ,बल्कि बाहर ही रखूंगा |”
.श्वान को उच्च श्रेणी का जानवर नहीं मना जाता |पर उससे कुछ अच्छी बातें सीखी जा सकती हैं |उदहारण के लिए ,मालिक के प्रति वफ़ादारी |निसंदेह हमें कुत्ते को सिखाना पड़ता है कि घर का मालिक कौन है |एक बार उस पर काबू पाना पड़ता है |पर उसके बाद उसे पता चल जाता है,”वह है बॉस |”और तब कुछ भी हो,वह उसका पालन करेगा |आप उसे मारें भी तो भी.वह आप से अधिक प्रेम करेगा |तो आप यदि कृष्ण के घर के बाहरवाले श्वान हैं,तो अच्छा व्यवहार न करने पर थोड़ी बहुत सजा पाने के लिए तैयार रहें पर आपको कुछ प्रसाद भी मिलेगा | वे आपका ध्यान रखेंगे |
“और मुझे छोटी जंजीर से बांधे रखोगे” छोटी जंजीर यानि तुम अपने मालिक के नज़दीक हो |एक भक्त के समान पास हो | एक भक्त लम्बे पट्टे पर काम कर सकता है या एक छोटी जंजीर पर भी | पर यदि पूर्ण समर्पण नहीं है तो ,तो कुछ भी सहायक नहीं होगा |मैंने देखा है,हमने वैष्णव-इतिहास में देखा है कि कुछ भक्तों को खुली छूट मिल जाती है –वे जो चाहें ,वो कर सकते हैं |उनके स्वामी इतने सहनशील हैं कि वे उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता दे देते हैं |पर तब वे कुछ खास आध्यात्मिक अभ्यास करना बंद कर देते हैं |वे,जो छोटी चेन पर होते हैं ,वे भी ऐसा ही करते हैं |तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपकी चेन कितनी लम्बी या छोटी है ,पर आपके समर्पण का स्तर क्या है ,इस का जरूर मतलब होता है |
” जो तुम्हारा विरोध करेंगें ,उन्हें मैं प्रवेश नहीं करने दूंगा ,बल्कि बाहर ही रखूंगा | भक्तों का बचा-खुचा प्रसाद ही मेरा भोजन होगा | मैं अनंत आनंद से इस अवशेष से दावत करूंगा ! जब कभी मैं बैंठूं या लेटूं ,सारे समय आपके कमल-चरणों पर मैं ध्यान लगाऊँगा |जब भी कभी मुझे पुकारोगे , मैं कूदूँगा और नाचूँगा और आप के पास आऊंगा |यद्यपि मैं अपने जीवन के बारे में बिलकुल नहीं सोचता ,फिर भी मैं हर समय प्रसन्न रहूँगा | मैं सिर्फ तुम्हें ही अपना एकमात्र पालक मानूंगा |”
यद्यपि ये शब्द दूसरे गीत का अनुवाद है,तथापि यदि हम वस्तुत्त:अपना शरीर, अपना मन और घर अर्पित करते हैं तो यही हमारी अवस्था होनी चाहिए | हम ब्रह्मा सम प्रतिष्ठित स्थान के पीछे नहीं भाग रहे हैं ,पर “यदि मुझे दूसरा जन्म लेना ही है ,तो मैं वैष्णव के घर में रहना चाहता हूँ |” मुझे सांसारिक भोग या मोक्ष का आकर्षण नहीं है | मेरी एक ही चाह है — जन्म-जन्मान्तर आपका सनातन सेवक बना रहूँ |”
वस्तुत: भक्तिविनोद ठाकुर इस प्रकार इसलिए याचना करते हैं ताकि हमारे पास जो कुछ है उसके समर्पण द्वारा,इस विनम्र तरीके को सदा याद रखें और समर्पण भाव में जिएँ |
Apr
15
(श्री भ.क.तीर्थ महाराज के व्याख्यान से उद्धृत ,२५ नवम्बर,२००६,सोफिया)
यदि कृष्ण के प्रति हमें श्रद्धा है,तो दोष/गलतियाँ भी शानदार हो जाती हैं | अत: हम कह सकते हैं कि एक वैष्णव या एक भक्त सदेव अच्छा होता है,भक्त बुरा नहीं होता | भक्त उत्तम है,उत्तमतर है,अति-उत्तम है |यहाँ तक कि एक युवा नौसिखिया भक्त उस हीरे की भांति है,जिसे तराशा नहीं गया है,जो अनगढ़ है |इस अवस्था में भी यह बहुत बहुमूल्य है |पर जब तराशने ,ठीक प्रकार के रखरखाव और पोलिश के बाद यह बहुत बढिया बन जाता है ,तो समस्त प्रकाश सामने आ जाता है |यदि सारे भक्त अनगढ़ हीरे हैं तो हमें एक मास्टर की आवश्यकता होती है ,जो उनमें से तेज को बाहर लाए|
हम कह सकते हैं कि तेज हीरे का सार है | तब हीरा है क्या ? यह ग्राफिट का सार और अंतत: कोएला है | अभी भी कोएले को हीरा बनने के लिए कुछ और मिलाना जरूरी है |वह क्या है?समय और दबाव |गहन दबाव |दोनों आवश्यक हैं|इस का अर्थ पीडाएं नहीं हैं,बल्कि यह तो एक प्रक्रिया है | हमें कीमत चुकानी है |कोएले को आप अंगीठी में प्रयोग करते हैं और उससे केवल गर्मी प्राप्त होती है |आप अपने तेज को नहीं जलाते हैं |क्योंकि हीरा अलग प्रकार की तरंग लाता है |कोई भी महिला स्वयं को कोएले से सजाने की मूर्खता नहीं करेगी | अत: आप जानते ही है कि प्रेम की शुरुआत में भावी पति हीरे की अंगूठी लाता है |वो भी कुछ कैरेट की न किएक ग्राम की | पर यदि आप दस किलो कोएला लेकर उसे जीतना चाहते हो – तो यह काम नहीं करेगा |कोएले और हीरे की तरंगो में अंतर है |हम सभी को तराशा हुआ हीरा बनना है | कोएला मत बने रहो|कोयले को धोना व्यर्थ है – यह काला ही रहेगा |तब भी , उचित दबाव व समय देने से गहरा काला कोयला पारदर्शी हीरे में बदल सकता है |
आध्यात्मिक प्रक्रिया में बुरे पक्ष का किस प्रकार से प्रयोग करें? हमें बुरे पक्ष को पहचानना होगा,हमारे जीवन के बुरे तत्त्व कौन से हैं?वे छ: शत्रु कौन से है?काम , क्रोध , लोभ, मोह , मद ,और मात्सर्य | काम, क्रोध , लोभ थीं मुख्य शत्रु हैं |हम उनका प्रयोग किस प्रकार कर सकते हैं ? आध्यात्मिक प्रक्रिया में हम काम को किस प्रकार प्रयोग कर सकते हैं ?कुब्जा का उदहारण लें | कुब्जा एक कुबड़ी महिला थी |पर कृष्ण के प्रति उसे गहन प्रेम था|और उसका प्रेम इतना गहन था कि वह कृष्ण की बहुत सेवा करना चाहती थी,इतनी कि उसके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन घटित हुआ |आप को पता ही है कि कृष्ण की पसंद विशेष है | वे कुबड़ी महिलाऐं पसंद नहीं करते |उन्हें सुंदरियाँ पसंद है| उन्होंने कुब्जा के पैर पर पैर रखा और गर्दन से पकड़ कर उसे ठीक कर दिया |अचानक ही वह कुबड़ी से सीधी होगई |दैविक स्पर्श होने से कुरूप स्त्री से ,वह अति-उत्तम सुंदरी बन गयी| अत: भावुक प्रेम होने पर,काम भाव से भी प्रभु के प्रति भाव रखा जा सकता है ,आप इसे प्रयोग कर सकते हैं |इसमें कोई बुराई नहीं है |
और क्रोध ,गुस्सा? आपको अपनी गलतियों पर गुस्सा होना चाहिए |क्रोध का अति उत्तम प्रयोग! लोभ या लालच ? हमने पहले भी चर्चा की है कि बिना असली लोभ के आप कृष्ण को पकड़ नहीं सकते| आद्ध्यात्मिक लोभ होना आवश्यक है ,आपको लोभ होना चाहिए भक्ति के लिए | मोह,भ्रम |मोह का प्रयोग हम भक्ति में किस प्रकार कर सकते हैं ,जो कि ज्ञानोदय हेतु है|लक्ष्य है -ज्ञानोदय और आप भ्रम का प्रयोग इसके लिए कर रहे हैं — यह असंभव है ! नहीं,हम भरम का प्रयोग भी कर सकते हैं और पूजा भी कर सकते हैं ,क्यूंकि हम यह भूलना चाहते हैं कि ईश्वर महान है | हम एक अंतरंग भगवान चाहते हैं ,एक मित्रवत भगवान,जो सहज प्राप्य हो | यह एक प्रकार का भ्रम है,दैविक भ्रम | फिर मद – पागलपन | हमें कृष्ण के लिए पागल होना चाहिए | संतुलित हर्षोन्माद की आवश्यकता नहीं है | यह नियंत्रित आग के समान है| प्रचंड अग्नि को प्रचंड ही होना चाहिए | और अंतत: द्वेष ,मत्सर्य |आप इसका प्रयोग नहीं कर सकते | जलन का प्रयोग आध्यात्मिकता में नहीं हो सकता |यह एक मात्र चीज़ है ,जिसको इस प्रक्रिया से बाहर रखना चाहिए | बाकि सभी दोषों का आप प्रयोग कर सकते हैं |अपनी प्रगति में इन शत्रुओं तक का प्रयोग किया जा सकता है |
