Sharanagati
Collected words from talks of Swami TirthaFeb
4
(श्री भ .क .तीर्थ महाराज के व्याख्यान से उद्धृत , ६ सितम्बर २००६ सोफिया)
सत्य सत्य ही है | लोगों के कई छोटे छोटे सत्य होते हैं | लेकिन हमें चाहिए कि सत्य को बड़े शब्दों से लिखें | यह एक ही है|इस पर कोई सवाल है ही नहीं| और जब तक हम सत्य के कई रूप देखते हैं,तब तक यह एक सापेक्षिक स्तर पर होता है | जैसे ही हम उच्च स्तर पर पहुँचते हैं , तब हमें बहु सत्य की सापेक्षता तथा एक ही सत्य का शुभ प्रकाश दिखाई देगा |सापेक्षित स्तर पर कई अलग अलग सत्य हैं. लेकिन मैं निरपेक्ष सत्य और वैधता के विभिन्न स्तरों के मध्य एक तीक्ष्ण अंतर करना चाहूंगा जिसके माध्यम से भौतिक संसार तक हमारी पहुँच होती है |क्योंकि आगे की ओर जितना आप देखते हैं, सत्यउतना ही दीप्तिमान है|आँख के अंधे होंगे ,तो कुछ दूर तक का ही देख पाओगे | एक व्यक्ति जितना अधिक प्रबुद्ध होता है ,वह उतना अधिक परिणामों को भी देख पाता है | तो वह एक वास्तविक रहस्यवादी है, क्योंकि वह भविष्य को देख सकता है,जो एक रहस्य है| उसी तरह वह एक इतिहासकार भी है, क्योंकि वह अतीत को भी जानता है ,पहले किस प्रकार घट रहा था ,यद्यपि इतिहास वह है ,जो बीत चुका है | अत:वह सच्चा आदमी है, जो वर्तमान क्षण में रह रहा है, क्योंकि वह अतीत के कुछ इतिहास से संतुष्ट नहीं है और वह थोड़े से आगामी रहस्यों से भी संतुष्ट नहीं है, लेकिन वह पूरा और सही वर्तमान समय चाहता है |
उपनिषदों में कहा गया है ,”सत्यमेव जयते”-सत्य की सदैव विजय होती है “जो आवरण में है,उसे अनावरण की प्रतीक्षा है |सत्य की सदैव विजय होती है| सापेक्षित स्तर पर कई बार हम इस नियम पर काम नहीं कर पाते है|ऐसा होता ही नहीं है |है न? पापी जीत जाता है और विश्वासी हार जाता है |पर यह कोई परेशानी की बात नहीं है,समय हमारी ओर है |
सत्य का उल्लेख कब नहीं करना चाहिए ? जैसे कि जब आप प्यार में हों| यदि आप किसी से प्रेम करते हैं ,तब आप ऐसा नहीं कि कहते नहीं हो–आप सच्ची कह नहीं पाते |जितना गहन आप का विश्वास उस व्यक्ति विशेष में है, उतना ही वह व्यक्ति सुन्दर लगने लगता है | यह मत भूलो – यदि किसी में बहुत सी बुराइयाँ हैं और कुछ अच्छाई भी हैं या सिर्फ एक ही है ,और उस पर विश्वास किया जाता है तो — वह एक अच्छाई प्रबल हो जाएगी | यदि किसी व्यक्ति में अच्छे गुण कई है और अवगुण कम ,पर यदि उस व्यक्ति में उसके बुज़ुर्ग ,बड़े,मास्टर आदि विश्वास नहीं करते हैं –तो बुराई प्रबल हो उठेगी |तो एक प्रेमपूर्ण सम्बन्ध में -ऐसा नहीं कि हमें कहना नहीं चाहिए,हम सत्य कह नहीं पाते |
चलिए ,हमें इतने ऊँचे स्तर से भी नहीं बोलना चाहिए|वास्तविकता की ओर आयें ! दिमाग का इस्तेमाल करें! यदि उस सत्य के परिणाम विनाशकारी हों ,उसे नहीं बोला जाना चाहिए| यदि मैं अपना सर्वनाश कर लूं – ठीक है- सच बोल लो | पर यदि आप दूसरों को चोट पहुंचाते हैं तो — दोबारा,तिबारा सोचो ,सौ बार सोचो !
आपने इस शिष्ट असत्य के बारे में तो सुना ही होगा | उदहारण के लिए ,डॉक्टर,माता,पिता,मित्र — और कई लोगों के लिए हम इस का प्रयोग करते हैं ,है न? क्यूंकि आप शब्दों के द्वारा हत्या कर सकते हैं |शब्द तीक्ष्ण हथियार हैं |
या फिर — जब कोई आशा न हो ,तब भी सत्य नहीं बोलो | उदहारण के लिए-मुझे एक घटना याद आती है : एक बहुत ,बहुत ही वृद्ध व्यक्ति थे ,लगभग अस्सी वर्ष के और उन्हें कैंसर हो गया |परिवार के सदस्यों ने डॉक्टर से कहा,’ कृपा कर के,बाबा को सिगरेट पीना छोड़ने के बोल दें,उसी के चलते कैंसर हो गया है|”और डॉक्टर ने कहा,”नहीं,इससे कोई फायदा नहीं होने वाला,मैं नहीं कहूँगा|” यह एक पराकाष्टा है,हो सकता है सकारात्मक उदहारण नहीं है , पर जब कोई आशा है ही नहीं ,सिगरेट छोड़ भी दें तो भी उन्हें मरना तो है ही ,तो क्यूँ नहीं उन्हें अंतिम सिगरेट का आनंद लेने दें|
अत: बहुत से अवसर हैं ,जब सत्य से परे भी उच्च विवेचन हैं| युधिष्ठिर और अर्जुन की कहानी याद है |मैने कई बार आपको बताई है |जब अर्जुन को धनुष मिला तो उसने सौगंध ली,”जो कोई भी मेरे धनुष गांडीव की बुराई करेगा ,मैं उसे नष्ट कर डालूँगा|” यह उसकी प्रतिज्ञा थी |कुरुक्षेत्र के युद्ध में एक दिन ऐसा हुआ कि युधिष्ठिर पर घातक हमला हुआ और अर्जुन वहां पहुच कर उनकी रक्षा नहीं कर पाए.क्यूंकि उस समय वे और किसी से युद्ध कर रहे थे | पर आप जानते ही है ,यह प्राचीनकाल की बात है ,तो योद्धाओं कि मानसिकता आज के मुकाबले अलग थी| इसी दौरान,जब युद्ध चल ही रहा था , अचानक ही सूर्य अस्त हो गया |सूर्यास्त के बाद हम योद्धा नहीं है ,हम शत्रु नहीं हैं ,हम मित्र हैं |अत: सूर्यास्त के पश्चात् युद्ध बंद हो गया|सब अपने-अपने शिविरों में लौट आये और युधिष्टर अर्जुन से मिले और आपको पता ही है,युधिष्टर सदैव सत्य बोलते हैं , बेचारे! वे सदैव सत्य बोलते हैं | तो उन्होंने कहा,” हे अर्जुन! तुमने प्रतिज्ञा कि थी कि तुम मेरी रक्षा करोगे,चाहे उसके लिए तुम्हें अपना जीवन त्यागना पड़े! पर आज जब मुझ पर घातक हमला हुआ ,तुम आये नहीं ! धिक्कार है तुम्हारे गांडीव को !”अर्जुन ने तुरंत कहा.”क्या ?आपने मेरे गांडीव को धिक्कारा?में तुम्हें मार डालूँगा,अभी इसी क्षण कुचल डालूँगा |कृष्ण वहीँ थे | और जरा कल्पना करें , अर्जुन–सूर्यास्त के पश्चात् — अपने उस भाई का वध करने को आतुर ,जिसके सम्मान हेतु युद्ध आरम्भ हुआ था ,उसे मारने को तैयार था,वह इतना अधिक उत्तेजित था …कृष्ण ने उसका हाथ पकड़ा,” हे ममप्रिय ! तुम क्या कर रहे हो ? ” और उसने उसी प्रचंडता से कहा,”तुमने भी सुना न ! इसने मेरे गांडीव की भर्त्सना की,इसे मैं मार डालूँगा |” पर तब कृष्ण ने कहा,” एक क्षण के लिए ठहरो| तुम युद्ध किस के लिए कर रहे हो?तुम्हारा ये गांडीव धनुष किस के लिए है ? “ओ प्रियवर ,तुम यहाँ क्यूँ हो?तुम्हारी मुख्य सोच क्या है?” “परन्तु,मेरी शपथ!” कौन अधिक आवश्यक है ? बस,वह तुरंत समझ गया|
अतएव हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि युद्ध शांति लिए होता है | यद्यपि यह काफी मूर्खतापूर्ण लगता है ,जैसे कि पहले उन्होंने कहा,”हम शांति के लिए लड़ते हैं |”यह शोचनीय है|फिर भी,यह वो शांति नहीं है ,जो युद्ध हेतु होती है | ठीक ? इसलिए यदि हमारे मस्तिष्क में उच्च सोच रहेगी तो सत्य हो सकता है एक ओर हो जाए | क्यूँ? क्यूंकि सत्य की जीत होगी| सत्य सर्वदा विजयी होगा – स्वयं ही ,मेरे लिए नहीं,न ही मेरे योगदान के कारण |सत्य स्वयं में ही सशक्त है,हमसे,कहीं अधिक सशक्त |