Sharanagati

Collected words from talks of Swami Tirtha




दामोदर :प्रश्न :भावनाएं एवं विश्वास-ये दोनों किस प्रकार एक दूसरे से सम्बंधित हैं?क्या पहले हम विश्वास करें ,तब भावनाएं प्रकट होंगी ;या भावनाएँ विश्वास के परिणाम स्वरुप आ जाएगी ?

तीर्थ महाराज :“आद्य श्रद्धा “[३ ] – प्रथम विश्वास है. लेकिन वह विश्वास, विश्वास का एक प्रारंभिक प्रकार है. विश्वास से पहले क्या है? सुकृति

(आध्यात्मिक गुण) और दयालुता . वो पहले है. ये आस्था के प्रारंभिक चरण के कारण स्वरुप हैं और जब हम विश्वास के प्रारंभिक चरण पर होते हैं , तो हम पवित्र लोगों के साथ संबद्ध होने लगते हैं..फिर रुचि, आध्यात्मिक स्वाद आते हैं, वास्तविक स्वाद . प्रारंभ में, वहाँ भी स्वाद है, अन्यथा हम यहाँ नहीं होते . अगर हमें कृष्ण के बारे में कुछ भी नहीं लग रहा है, तो यहाँ रहने का क्या कारण है? तो अचल विश्वास और वास्तविक भावनाएं साथ साथ चलती हैं. आद्य श्रद्धा, पहले विश्वास है. यह विश्वास हमें जुड़ने करने में मदद करता है. हम कृष्ण के साथ संबद्ध हो सकते हैं, हम वैष्णव के साथ संबद्ध कर सकते हैं, हम गुरु के साथ संबद्ध हो सकते हैं. तो संगत वहाँ है. इस संगत का एक विशेष प्रकार है – गुरु – सेवा.फिर आती है अस्तित्व की शुद्धि .कैसे अनार्थ्थ से मुक्त हों और सेवा में लगें,इत्यादि. फिर है रुचि,रुचि है स्वाद,उच्चतर स्वाद और यह उच्चतर स्वाद हमारे विश्वास को पुष्ट करेगा या उसमें वृद्धि करेगा

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तो क्या पहले है: अंडा या मुर्गी? क्या पहले है: भावना या विश्वास? दरअसल परिष्कृत स्तर पर वे अविभाज्य हैं.

गोपिओं को विश्वास नहीं था. उन्हें प्यार था. आस्था, चलो स्वीकार करते हैं, कई मामलों में सैद्धांतिक है. लेकिन वास्तविक तो है प्यार ! स्नेह का व्यक्तिपरक भाग -जो है विश्वास , और वस्तुनिष्ठ भाग है – सेवा, या बलिदान . गोपिओं को विश्वास नहीं था. वे सैद्धांतिक स्तर पर नहीं थीं . वे कृष्ण को चाहती थीं. चाहे कैसा भी परिणाम हो या प्रतिक्रिया हो. “हम अनन्त नरक में भी चली जाएँ जाना जाएग – कोई समस्या नहीं है” यह विश्वास नहीं है, यह भावना है! भावनाएँ आस्था की तुलना में अधिक हैं. क्योंकि भावनात्मक हिस्सा अधिक सक्रिय है, विश्वास अधिक निष्क्रिय है.कुरुक्षेत्र में जब वे फिर से मिलते हैं- कृष्ण और गोपियाँ- वे कहती हैं :” हम केवल यादों से संतुष्ट नहीं हैं .हम आप को चाहते हैं,यादों को नहीं .” यह विश्वास है?! नहीं! यह भावना है. “मैं आप पर अधिकार चाहते हूँ ” आस्था का अर्थ है “मैं तुम्हारा हूँ.” भक्ति का मतलब है: “लेकिन तुम मेरे हो!” एक विश्वास है, दूसरा है प्रेम . यही अंतर है.

लेकिन क्या पहले आता है, मैं नहीं बता सकता. ये दोनों बहनें सिर्फ एक- दूसरे के पीछे चल रही हैं . एक दूसरे पर कब्जा करने की कोशिश कर रही है, दूसरी , पहली कि सेवा करने की कोशिश कर रही है. वे एक साथ काम करते हैं. आपका विश्वास आपकी भावनाओं कि मदद करता है.आपकी भावनाओं से आपके विश्वास के लिए मदद मिलेगी.

[३] ” भक्ति -रसामृता -सिन्धु ” १.४.१५-१६



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