Sharanagati
Collected words from talks of Swami TirthaJul
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(श्री भ.क. तीर्थ महाराज के व्याख्यान से , २६ मई ,२००६ )
भक्ति की प्रमुख नौ प्रक्रियाओं में से , सर्वाधिक अभ्यास जाप का करना चाहिए | पहला कारण यह है कि आपको स्वार्थी होना चाहिए | | स्वार्थी ,इस अर्थ में कि आपको अमृत का स्वाद चखने की इच्छा होनी चाहिए | इस प्रकार का स्वार्थ स्वीकार्य है | इन दैविक पवित्र नामों में एक विशेष प्रकार का दैविक माधुर्य छुपा हुआ है |
परन्तु आपको इस पवित्र नाम को बुद्धिमानी से जपना चाहिए | स्वार्थी शब्द से ज्यादा अच्छा लगता है ये..? बुद्धिमान/होशियार,इस अर्थ में कि पवित्र नाम द्वारा आप पूर्णत्व प्राप्त कर सकते हैं |
एक बार एक भक्त मण्डल में एक बहस छिड़ गयी,हरिदास ठाकुर भी वहीँ थे और प्रश्न ऐसा था : पवित्र नाम को जपने से क्या लाभ होता है ? कुछ लोगों ने ऐसा कहा कि जाप से आप अपने कर्म को बदल सकते हैं/रोक सकते हैं | ये बुरा परिणाम नहीं है,ठीक है न -आप कर्म से मुक्त हो जाते हो | पर कुछ लोग इससे संतुष्ट नहीं हुए |तो फिर एक और राय आयी :”अरे नहीं,नहीं ,कर्मों का रुकना तो कुछ भी नहीं है , यह तो मुक्ति देता है | यह तो और भी अच्छा लगता है |ओह ! आंतरिक पूर्णता को प्राप्त करना ! भौतिक जीवन के बनवार से बाहर आना ! जन्म-मरण के इस जंगल से बाहर आना !अधिकांश सहमत थे , ” हाँ ,ठीक है ,यही उत्तम परिणाम है |”पर तभी किसी ने कहा :” हरिदास ठाकुर यंही हैं,उनकी राय पूछी जाए |” उन्हें पवित्र नाम पर बोलने का अधिकार है |
अत : भक्तों की कुछ खास विशेषता होती है , भक्तिपूर्ण सेवा के कुछ ख़ास कार्य क्षेत्रों पर उनका अधिकार होता है | अधिकार का अर्थ “डॉक्टर मिथ्यावादी अहम् जी ” का भाव नहीं है ,बल्कि एक सेवक का भाव है , क्योंकि सेवा भाव से ही हम उस एक ख़ास क्षेत्र के खास अधिकारी बन सकते हैं ,जो हमें दिया गया है , जो हमारे समर्पण के भाव रूप में दिया गया है |
तो,हरिदास ठाकुर पवित्र नाम के जाप पर बोलने के अधिकारी हैं ,और उन्होंने उनसे पूछा ,” क्या आप कर्म को रोकने और मोक्ष प्राप्त करने जैसे उत्तरों से संतुष्ट हैं ?”उन्होंने कहा , ” अरे ! यह तो कुछ भी नहीं है | मोक्ष -प्राप्ति,यह तो कोई भी धर्म आपको दिला सकता है, पर पवित्र नाम का जाप करने से आप कृष्ण के कमल-चरणों के समीप आ सकते हैं |” यह बहुत ही साधारण वाक्य लगता है ,पर जरा इस वाक्य के अर्थ पर सोच के देखो.कि आप मोक्ष से भी परे जा सकते हैं |
हरिदास ठाकुर का यह निर्णायक उत्तर था कि आप परमात्मा के चरण-कमलों के प्रति भक्ति पा सकते हैं ,स्वार्थ रहित भक्ति |कि तुम भक्ति सुप्रीम यहोवा, निस्वार्थ भक्ति का कमल पैर प्राप्त करने के लिए कर सकते हैं| और बाकि सब कुछ जैसे कर्म को रोकना और आशीर्वाद देना और मोक्ष प्राप्ति -ये सही तरीके से किए गए पवित्र नाम-जाप के गौण असर हैं | अगर हम अपने जाप के स्तर पर गौर करते हैं तो हमें इसे भई देखना चाहिए कि हम अपने आप को कितना समर्पित कर सकते हैं , क्या यह सचमुच कृष्ण के लिए गहन क्रंदन है या यह सिर्फ औपचारिक रीति-रिवाज़ है,जिसे हम सिर्फ करने के लिए निभा रहे हैं | जब तक आप क्रंदन नहीं करेंगे,कृष्ण नहीं मिलेंगें |जप कृष्ण के संग अनिवार्य अन्तरंग बातचीत है |
अतएव इसका मतलब है कि अपने जाप में आप को होशियार रहना है क्योंकि इसी प्रकार से आप समझ सकते हैं ,” ओह ! मैं तो मुक्ति से भी परे जा सकता हूँ | पर क्या भक्ति योग में होशियार होना ही काफी है ? नहीं यह काफी नहीं है | हमें अपने मस्तिष्क को(सोच-विचार की शक्ति को ) खोना पड़ेगा -पूरी तरह से | सर्वप्रथम अपना दिमाग इस्तेमाल करने की कोशिश करें ,तभी आप अपनी समझ गँवा सकते हैं | ऐसा कैसा होता है ? यह एक सुनियोजित प्रक्रिया है | कहा गया है कि भक्ति ईश्वर तक पहुचने और समझने के किए एक वैज्ञानिक तरीका है और इसके लिए आपको अपनी समझ गँवा देनी चाहिए ? यह क्या है ? क्या है भई!
इसका अर्थ है कि भक्ति विश्लेषण के लिए नहीं है | जिस प्रकार श्रीला प्रभुपाद कहा करते थे ,” बस कृष्ण से प्रेम करो !” वे सदैव इस दृष्टिकोण का समर्थन करते थे कि प्रेम से ही आप उसे समझ सकते हैं | भक्ति से आप कृष्ण को समझ नहीं सकते पर प्रेम के माध्यम से आप कृष्ण को अपने सामने प्रकट होने के लिए आकृष्ट कर सकते हैं | क्यूंकि हमारी स्तिथि शाश्वत अधीनस्थ की है ,परम तत्व को समझ सके ,हममें इतना सामर्थ्य ही नहीं है | लेकिन निरपेक्ष स्वयं को प्रकट करने में समर्थ है , पर स्वयं को संकीर्ण को दिखाता है |
जप का यह अंतिम चरण है ,जहाँ आप अपनी समझ खो सकते हो | इससे पहले नहीं | तो तीन चरण इस प्रकार हैं है : पहला है – स्वार्थी , सकारात्मक भाव में , आप में अमृत पान की इच्छा होनी चाहिए ,दूसरा है जप करने में होशियारी दिखाना ,जप का अंतिम परिणाम क्या है ,इसे समझना और आखिरी ,बस तैरते रहन , महामंत्रम की लहरों पर बहना |. उस स्थान पर आप जो कुछ भी करते हैं ,वह जाप बन जाता है,पवित्र जाप | निसंदेह यह केवल अति उन्नत पवित्रात्मों के लिए आरक्षित है | उदाहरनार्थ ,उस पुराने ज़माने की बात है,जब श्रीला श्रीधर महाराज एक मंदिर बनाने की-सीमेंट के मूल्य की बात कर रहे थे –तो वह कानों के लिए विशुद्ध कृष्ण -कथा थी | वे जो कुछ भी कह रहे थे ,वह पूरी तरह से कृष्ण से सम्बद्ध था | अगर आप पैसे के बारे में बात करते है -तो वह इतना मधुर नहीं है | अगर- आप ,आपके पास जो कुछ भी है ,उसके बारे में बात करते हैं , तो यह भी उतना मधुर नहीं है |
अत: हमें खुद को योग्य बनाना है ..गहराई तक जाओ | और याद रखो ,जप को बेहतर बनाने का सबसे बढ़िया तरीका क्या है ? शुद्ध जप का अर्थ है -उनकी सेवा करना ,जो निर्मल जप करते हैं | भक्ति का यह अति व्यवहारिक पक्ष है |