


Sharanagati
Collected words from talks of Swami Tirtha
Jul
30
(श्री भ.क .तीर्थ महाराज के व्याख्यान से , २७ of मई , २००६ , सोफिया )
“चैतन्य महाप्रभु ,संवाद (सनातन गोस्वामी से ): “ मेरी माताजी का आदेश है कि मैं जगन्नाथ पुरी में रंहूँ ,इसलिए मैं मथुरा , वृन्दावन जाकर लोगों को ,धर्म -नियमो का पालन करते हुए जीवन कैसे व्यतीत करें ,यह उपदेश नहीं दे सकता हूँ | यह सम्पूर्ण कार्य मुझे तुम्हारी देह के माध्यम से ही करना पड़ेगा, पर तुम इसे करना ही नहीं चाहते, मै इसे सहन नहीं कर सकता !!
जब एक विशेषज्ञ , स्वयं कुछ “नहीं कर सकता “,तब वह कुछ सहायकों को इस अभियान से जुड़ने के लिए आमंत्रित करता हैं उपरोक्त कथन इस बात का उदहारण है |”जो मैं नहीं कर सकता ,वह आप के माध्यम से करूंगा “और सनातन गोस्वामी प्रभु के हाथों की कठपुतली (निमित्त )बननेके लिए तैयार थे |जो कुछ वह स्वयं नहीं कर पाते- उसे वह कर सकते हैं , सहायक ,सेवक या कठपुतली (यन्त्र ) के माध्यम से |
इससे यह स्पष्ट होता है कि स्वयं ईश्वर को भी कुछ सहायकों की आवश्यकता होती है | परन्तु,इसे ठीक प्रकार से समझें – यह सत्य नहीं है -पर लीला ले लिए – दूसरों को साथ लेने के लिए ,कुछ विशेष उद्देश्यों को इस प्रकार ,प्राप्त करने के लिए…वह और किसी तरह से भी यह कर सकते हैं ,पर स्व-प्रयोजन हेतु वह इसे ,इसी प्रकार करना चाहते थे | वह अन्य बहुत तरीकों से इसे कर सकते थे,पर उन्होंने यही हल चुना | क्यों ? ताकि अपने भक्तों महिमामंडित कर सकें |कृष्ण अथवा चैतन्य महाप्रभु , महान कार्य सिद्धि की महिमा में सहभागी बनाने तक को तत्पर हैं |
क्या आप अनुभव करते हैं .(.आपस में) बांटने की इच्छा ? दूसरों को यश प्रदान करना ,उसे अपने लिए एकत्र कर के नहीं रखना ? मेरे विचार से ,फिर से इसमें गोपी भाव स्पष्ट है |.कुछ लोग सोचते हैं कि गोपी -भाव बहुत दूर की चीज़ है,बहुत ऊँची है ,बहुत गोपनीय है | यह बिलकुल सही है ,लेकिन साथ ही यह अत्यंत व्यावहारिक भी है ,क्यूंकि गोपियों की भावनाएं हैं -दूसरों को, कृष्ण से भेंट करवाने की भावनाएं – ना कि स्वयं उनसे मिलने की भावनाएं |यहाँ यह भी सुस्पष्ट हो जाता है | यहाँ तक कि ईश्वर ,स्वयं सारा यश अपने लिए नहीं लेना चाहते, वे इसे दूसरों को देने के इच्छुक हैं | ! कर्म करो ! इस प्रकार आप अधिक यशस्वी होंगें .” ”
Iप्रथम चरण में हम सोच सकते हैं कि गोपियाँ बहुत स्वार्थहीन हैं |क्यूंकि वे अपने लिए कुछ नहीं चाहतीं ,बस दूसरों की सहायता करती हैं ,लेकिन ये गोपियाँ गाँव की कोई मूर्ख लड़कियां नहीं हैं | वे बहुत चतुर हैं और बहुत स्वार्थी भी हैं क्यूंकि जब वे कृष्ण से स्वयं मिलती हैं तो यह शुभ है ,लेकिन यदि वे दूसरों को कृष्ण से मिलवाने में सहायता करती हैं ,तो कहा जाता है कि वे करोड़ों गुणा अधिक प्रसन्नता अनुभव करती हैं | यह उनका स्वार्थ है ,वे अधिक प्रसन्न होना चाहती हैं ,कृष्ण से सिर्फ मिलना ही नहीं ,वरन दूसरों को कृष्ण से मिलवाने में सहायता करना चाहती हैं ,बिलकुल महाप्रभु की तरह ..वे स्वयं कार्य सम्पन्नं नहीं करना चाहते |वे दूसरों को अभियान से जोड़ने के लिए सहायता करने के इच्छुक है|
भक्तों की संगत में भी यही प्रतिबिंबित होता है | जो कुछ गुरु स्वयं कार्यान्वित नहीं कर पाते,अनुयायियों के माध्यम से उसे पूरा करते हैं | कम से कम उनके माध्यम से,जो समर्पित हैं | और यही है— भक्तिमय सेवा की महिमा का वितरण |
यदि हम स्वयं को अर्पण करते हैं सेवा हेतु अपने अस्तित्व को अर्पण करते हैं,तो यह न केवल सात्विक हैं ,वरन अलौकिक भी है | वस्तुतः यह भौतिक सत्ता(जीवन ) को शुद्ध करने का तरीका है , अपना सब कुछ सेवा हेतु अर्पित कर देना | कहा जाता है कि हम कृष्ण की सेवा अपनी संपत्ति द्वारा ,शब्दों और मानस द्वारा और अंतत: अपने जीवन ,जीवन -ऊर्जा द्वारा कर सकते हैं …सेवा हेतु अपने सम्पूर्ण जीवन के समर्पण द्वारा |
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