Sharanagati
Collected words from talks of Swami TirthaJun
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(श्री भ. क.तीर्थ महाराज के व्याख्यान से उद्धृत , २५ .०२ .२००७ , सोफिया )
यदि दीक्षा से मैं एक शुद्ध भक्त में परिवर्तित हो जाता हूँ -मेरा दिल सोने का हो जाए – तो मुझे इसे लेना ही है ! लेकिन फिर अगला प्रश्न उठता है -उस अधिकारिक व्यक्तित्व को किस प्रकार मिला जाए,कैसे ढूंडा जाए? एक बार मेरे एक प्रिय गुरुभाई ने कहा : “ओह, मैंने इसके लिए भारत जाने का फैसला किया है .मैं अपने मास्टर की खोज करना चाहता हूँ “लेकिन भारत जाने के बदले, वह , अपने गुरुदेव को ढूँढने के लिए , नंदा फलवा फार्म के लिए चल पड़ा – जो सिर्फ तीस किलोमीटर की दूरी पर था , तीन हजार किलोमीटर नहीं.खोज, आन्तरिक खोज होनी चाहिए. और जब मैं अपनी संभावनाओं की धार पर अकेले पहुंचा हूँ , तो मुझे कुछ कुछ अन्य मार्गदर्शन लेना है , किसी और उच्च स्थल से. लेकिन हो क्या रहा है:आपको एक निमंत्रण मिला, तो आपको यह बहुत पसंद आता है और यह इतना रोमांचक है -कि आप कूदने लगते हैं क्या आप कुछ जानते है,आपके लिए क्या इंतज़ार कर रहा है ? क्या आपको मालूम भी है कि भक्ति परिधि के भीतर क्या है? क्या तुम्हें यकीन है कि यह आपके लिए है भी या नहीं ?क्या गुरु-सेवा के लिए आप सारा जीवन समर्पित कर सकते हो?ये बड़े प्रश्न हैं .लोग गुरुओं की जांच करने के आदी हो गए हैं . उनके गुण क्या हैं, वे किस तरह की योग्यताओं वाले हैं , वे ऐसे हों,वेसे हों….. क्योंकि मैं इतना महान हूँ कि मुझे सबसे अच्छा गुरु चाहिए , जो शास्त्रों की सभी आवश्यकताओं को पूरा करता हो . लेकिन अगर मैं आप को उन सभी गुणों के विषय में बताऊँ,जिनकी एक शिष्य से अपेक्षा की जाती है…किसी को भी उस सूची में रुचि नहीं है.अच्छा है उसे भूल ही जाएँ.पर आपको ज़रा थोडा सा आइडिया दे दूं- भावी शिष्य मेरा मतलब है उम्मीदवार कोशिक्षित,युवा,स्वस्थ,संपन्न,बुद्धिमान,हार प्रकार सर उत्तमऔर पूर्ण रूप से समर्पण के लिए तैयार होना चाहिए.किस्में हैं ये सभी योग्यताएं?पर तब आप भी पूछ सकते हैं:अगर कोई इतना ही उत्तम है तो उसे गुरु की आवश्यकता ही क्या है?!तब किसी चमत्कारिक प्रबंध से आप मास्टर से मिलते हैं और उनसे कहते हैं:”मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ.”अपने ह्रदय की गहराई से मैं तुम्हें सुझाव देता हूँ : अगर कोई आप से मिलता है और कहता हैं: “तुम्हें तो मेरा शिष्य होना चाहिए” तो उस से बचने की कोशिश करना या सीमा में रहो .जांच करो : “क्यों?” क्योंकि शास्त्रीय कहानियों में यह थोड़ा अलग है. सिर्फ इसके कि अगर आप को प्रभु यीशु मिलते हैं और वे आप से कहते हैं कि आप “मेरे पीछे आओ!” तो यह करो ! यह करो! संकोच मत करो! पीटर की तरह मत बनो. प्रभु ने उस से कहा: आओ मेरे पीछे आओ!और उन्होंने कहा: ” लेकिन मेरे जाल के बारे में क्या करू ?” ” मेरे आतंरिक -जाल के बारे में क्या करूं ” – 21 वीं शताब्दी में पीटर कहते हैं… “अपने इन्टरनेट के बारे में क्या करूं ” बस आओ ! मेरे पीछे आओ ! “कोई बात नहीं, कुछ सोचो नहीं . अपने मोह को त्याग दो ., मेरे साथ आओ. “लेकिन संत, शिक्षक , और उस क्षमता के प्रतिनिधि बहुत कम प्रकट होते हैं. भारतीय परंपरा में विभिन्न कहानियां कही जाती हैं – जब चेले अपने मास्टर से मिलने और उनके खोज के लिए इतने उत्सुक होते हैं. एक कहानी नरोत्तम दास ठाकुर और लोकनाथ दास गोस्वामी की कहानी है. लोकनाथ का अर्थ है “संसार का स्वामी” . वह बहुत ही त्यागी व्यक्ति था- हमेशा अपने अभ्यास के लिए समर्पित,बहुत लोगों से मिलना नहीं,समय बर्बाद नहीं करना ,इसलिए उन्हें एक महान संत माना जाता था. वहाँ एक संभावित उम्मीदवार था – यह थे भविष्य के नरोत्तम दास.उन्होंने तय किया: “लोकनाथ !वे ही मेरे गुरु होगें “तो उन्होंने मास्टर से संपर्क किया, वे उसके पास गए और कहा: . “अरे गुरु, मुझ पर दया हो, कृपया मुझे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लें “उन्होंने कहा:”यहाँ से बाहर हो जाओ! यह मेरा काम नहीं है. मैं योग्य नहीं हूँ. संतों के पास जाओ. बहुत सारे महान संतों यहाँ हैं ,उनसे मिलो .उनके पास जाओ. मैं शिष्यों को स्वीकार नहीं करता . “” नहीं, नहीं, नहीं, मैंआपका अनुयायी बनना चाहता हूँ ! कृपया “” नहीं! बिल्कुल नहीं!तुम ऐसा नहीं कर सकते “और उन्होंने इस युवक को अस्वीकार कर दिया . बस अपने आप कल्पना कीजिए : आप एक महान संत के पास जाते हैं और आप आते हैं अपने जीवन के साथ – यह आपकी सर्वोच्च भेंट है-आप के पास जो कुछ भी है सब कुछ. . आप कहते हैं: “कृपया, मेरी ज़िंदगी स्वीकार करें “, और तब वह व्यक्ति कहता है: “ए! यहाँ से निकल जाओ. वापस जाओ, मुझे परेशान मत करो.” हा?! आपका क्या भाव है ?लग रहा है? आप जला हुआ सा महसूस करते हैं .और आम तौर पर ऐसे क्षणों पर पश्चिमी देशों वाले भाग खड़े होते है : “नहीं, मैं गलत था, वे मेरे मास्टर नहीं है. उन्होंने मुझे निराश किया है ! ” लेकिन नरोत्तम अलग तरह के थे . उन्होंने कहा: “ओह! मेरे गुरुदेव इतने महान है! वह मेरी परीक्षा करना चाहते हैं , यह देखने के लिए कि मेरा समर्पण असली है या नहीं . लेकिन तब क्या किया जाए ?” वह दार्शनिक रूप से बहुत अच्छी तरह से शिक्षित थे और उन्होंने कहा:” मुझे अपने मास्टर को प्रसन्न करना है.यही एक तरीका है .”औरकैसे अपने आध्यात्मिक गुरु को संतुष्ट किया जाए ? शब्दों से? विचारों से? शायद कुछ गतिविधियों से , यह ठीक है . उन्होंने यह भी यही चुना था. उन्होंने तय किया: “मुझे उनकी सेवा करनी है ” और तुम जानते ही हो, ये संत, वास्तव में बहुत प्राकृतिक परिस्थितियों में रह रहे थे. उनके निवास के पेड़ के नीचे थे.हर दिन विभिन्न पेड़ के नीचे. लेकिन लोकनाथ दास गोस्वामी शौचालय के रूप में एक निश्चित स्थान का उपयोग कर रहे थे – झाड़ियों में. और वैसे भी उनका कोई स्थायी निवास तो था नहीं और इसलिए उनके पास कुछ भी नहीं था. उनके पास एक छोटी सी धोती थी और व्यावहारिक रूप से उनकी सेवा करने का कोई अवसर ही नहीं था .युवक का फैसला किया: “. मैं अपने गुरु के शौचालय के लिए जगह साफ कर सकता हूँ ” कुछ समय बाद लोकनाथ गोस्वामी ने देखा कि “अरे, इन झाड़ियों में इतनी अच्छी तरह से व्यवस्था हो रही है . कुछ तो यहाँ हो रहा है “लेकिन उन्हें संदेह हुआ :”. कोई यह कर रहा है “तो अगली बार वे एक दूसरी झाड़ी में छिप गए और और जाँचने के लिए कि हो क्या रहा था.तब सुबह उन्होंने देखा कि नरोत्तमदास एक गमछे में आरहे हैं ,बहुत खुशी से जप करते और गुनगुनाते हुए . “ओह, मैं आता हूँ और सेवा करता हूँ , सब साफ करता हूँ , और सब कुछ अच्छा कर देता हूँ .” और फिर अचानक लोकनाथ गोस्वामी झाड़ियों से बाहर कूद पड़े और बोले हा: “अरे, बदमाश, तुम यहाँ क्या कर रहे हो?” “गुरुदेव, मैं आप कि कुछ सेवा करने की कोशिश कर रहा हूँ” “आह, नहीं … लेकिन जो तुम्हें पसंद है,वो करो !” और उसने कहा. “ओह! गुरुदेव ने आशीर्वाद दे दिया!मैं उनके आशीर्वाद के साथ सेवा कर सकता हूँ “और भी अधिक खुश हो गया . लेकिन लोकनाथ वास्तव में अपने में सीमित थे और उस व्यक्ति को स्वीकार करने को को तैयार नहीं थे . तो बस इतना ही , कि अन्य संतों ने भी उन्हें कहना शरू कर दिया: “गोस्वामी, तुम क्यों इतने कठोर हो ? आप इस जवान आदमी क्यों यातना दे रहे हो ? वह इतना अच्छा है, समर्पित है, इतना योग्य.है तुम उसे क्यों स्वीकार नहीं करते? . वह तुम्हें बहुत पसंद करता है’उसने कहा: “नहीं” “लेकिन क्यों नहीं?” तब उन्होंने कहा: “तुम्हें पता है, मैंने एक कसम खाई है . मैं किसीको भी शिष्य नहीं बनाता हूँ .”जरा कल्पना करी , यह बहुत गंभीर बात है. यदि ऐसे स्तर का एक संत एक व्रत ले लेता है, तो इसका मतलब होता है, यह गंभीर है. लेकिन तब साथ के संतों ने कहना शुरू किया: “अरे, एक मिनट रुको. इस युवा ने भी एक व्रत लिया है. . वह अपना जीवन देने के लिए तैयार है, लेकिन वह आपका ही शिष्य बनेगा “तो फिर लोकनाथ गोस्वामी ने कहा:” शायद उसका व्रत मेरे व्रत से अधिक मजबूत है. उसे कहो कि यमुना में जाकर , स्नान करे और फिर मेरे पास आए . ” लोकनाथ दास गोस्वामी ,जो उस स्थान के शासक थे,अपने शिष्य के कारण अपनी प्रतिज्ञा तोड़ने को तैयार थे.उन्होंने एक शिष्य को लिया,उसका नाम था नरोत्तम .नरोत्तम का अर्थ है”मनुष्यों मे सर्वश्रेष्ठ” और नरोत्तम दास ठाकुर के कितने शिष्य थे?साथ हज़ार.यह संख्या का नहीं ,वरन गुणों का प्रश्न है. इस प्रकार की प्रतिबद्धता और इसी प्रकार की मंशा हम में होनी चाहिए , खुद को वास्तव में आत्मसमर्पित करने हेतु.इस सौदे में सब कुछ गुरु पर निर्भर करता है.आधिकारिक तौर पर कहा गया है , सैद्धांतिक रूप से यह इस तरह है. लेकिन आप उदाहरण से समझ सकते हैं की है कि गुरु और अतिसशक्तदिव्य व्यक्तित्व अपने छात्रों की मधुर चाह के लिए के लिए ,अपने विचार और राय बदलने के लिए तैयार हैं. इसलिए दीक्षा का अर्थ है ,एक प्रेम सम्बन्ध में प्रवेश करना.. यह एक सैद्धांतिक स्कूल नहीं है कि आप उससे जुड़ जाएँ. यह एक प्रेम संबंध है. चमत्कार होते ही हैं.श्रीला श्रीधर महाराज कहते हैं कि कृष्ण के मार्ग में चमत्कार ही चमत्कार हैं.वे फिर और जोड़ते हैं:”तो चमत्कारों के लिए तैयार रहो!”क्या आप चमत्कारों के लिए तैयार हैं? जरा सोचिए,चमत्कार तो अभी से घटने शुरू हो गए हैं,यहीं और अभी-आप तैयार हैं? अपने जाल को छोड़ने के लिए?