Sharanagati

Collected words from talks of Swami Tirtha




“किसी भी जीवित प्राणी के लिए शोक न करें “[*] क्यूंकि शोक करना काफी नहीं है!यदि मैं आप को लेकर दुखी हूँ,”अरे ,मुझे आप के लिए बहुत खेद है,बहुत ही ज्यादा!मुझे बहुत बुरा लग रहा है!”—यह काफी नहीं है!आप इससे खुश नहीं होंगे!हमें दूसरे लोगों की आध्यात्मिक प्रगति में तत्परता से सहायता करनी चाहिए. इसे ठीक प्रकार से कैसे करें,यह हमें सीखना चाहिए.
हम एक विश्वसनी व्यक्ति से सीखना चाहते हैं.इसलिए लोग अध्यात्मिक सत्ता के पास जाते हैं.”कृपया मेरी सहायता करें.!”-यही मुख्या कारण है.मैं पूर्णता प्राप्त करना चाहता हूँ,कृपया मेरी सहायता करें.!”यह थोडा ज्यादा विनम्रता पूर्ण है.क्यूंकि पहला कहता है,”मैं पीड़ित हूँ,मैं अपना सर्वस्व आप पर अर्पित करना चाहता हूँ.,अपनी सभी पीडाएं आपको देना चाहता हूँ.”दूसरा कहता है,”मेरा एक लक्ष्य है,उसकी प्राप्ति के लिए मेरी सहायता करें.”पर एक सच्चा शिष्य कहता है:मैं पीड़ित हूँ और मेरा एक लक्ष्य है,पर कोई बात नहीं.तुम्हें क्या पसंद है और तुम चाहते क्या हो?यह बहुत दुर्लभ है.है ना ,आप थोड़े से स्वार्थी हैं,काम या ज्यादा.”मुझे ये चाहिए,वो चाहिए.”लेकिन ,”कैसे चाहिए,कृपया मुझे बताओ,क्या किया जाए.”
अपने अध्यात्मिक विशेषज्ञों से हमें बहुत कुछ सीखना है,सबसे पहले तो सीखना है कि कैसे जिया जाए .अधिकतर तो हम जानते ही नहीं हैं कि कैसे जिया जाए. मानवी अस्तित्व के हमारे कोई मापदंड नहीं हैं. इसलिए महान अध्यापकों को बहुत प्रारंभिक नियम बताने चाहिए:हत्या मत करो.झूठ मत बोलो.”जरा सोच सोच कर देखो कि आप को आपने अनुयायियों को इस स्तर पर सिखाना पड़े:”हत्या मत करो…”यह तो कृपा है!आप हत्यारों के बीच जाओ और उन्हें पड़ना शुरू कर दें:”हत्या मत करो.”या आप उन तक जाएँ ,जो झूट बोलते हैं और उन्हें सीखें,:झूठ मत बोलो.” उनकी प्रतिक्रिया क्या होगी?”गुरूजी,यह असंभव है.यह बहुत उच्च स्तरीय है.यह तो हमारी रोज की प्रक्टिस है.इसे हम कैसे छोड़ सकते हैं?!” सोच कर देखो कि आप इन दस ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हो:चोरी मत करो.”आदि आदि.अति प्रारंभिक नियम.अथवा,वैष्णव परंपरा .,”अहिंसा पालन करो.”पुन:हत्या मत करो,दूसरों को दुःख मत पहुँचाओ. बहुत ही साधारण चीज़े हमें सीखनी हैं क्यूंकि यही है जिसकी कमी महसूस हो रही है.हमने ये नहीं सोचा कि स्वार्थी होना हिंसा है.
प्रारंभिक स्तर के बाद भी कुछ और होना चाहिए.हमें अपने गुरु से अभ्यास कैसे करें ,यह भी सीखना है.किससे बचना चाहिए:ये करें ,ये ना करें;और फिर किस का अभ्यास किया किया जाए,मुझे क्या करना है.गुरु यह अभ्यास हमें सीखा सकते हैं:मंदिर आओ,व्याख्यान सुनो,जप करो”यद्यपि हम यह सोच सकते हैं कि :”अरे!मैं जप कर रहा हूँ,,यह सर्वोत्तम है!” नहीं,यह बहुत साधारण है.उसी प्रकार जैसे कि”हत्या मत करो/,जप करो “.अगर मैं स्वयं को ईश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित नहीं करती हूँ तो मैं एक लुटेरा हूँ.मैं उसकी संम्पत्ति का प्रयोग अपने हित के लिए करने की कोशिश रहा हूँ.जीवन,मेरा नन्हा सा जीवन ,बड़े अक्षरों वाले जीवंन शब्द से आता है.अत:यदि मैं इस जीवन का उपयोग सिर्फ अपने जीवन के लिए करता हूँ तो ,तब मैं इसे उस बड़े जीवन से चुरा रहा हूँ.”अपना समर्पण कर दो”गुरु से सकारात्मक जुडाव भी बहुत प्रारंभिक है.फिर भी टालने से अच्छा है,अभ्यास करना.क्यूंकि अच्छे का अभ्यास करने से स्वाभाविक रूप से आप बुराई से दूर हो जाते हैं.अत;आध्यात्मिक गुरु से ही अभ्यास सीखना चाहिए.
लेकिन सर्वश्रेष्ठ रास गुरु से सीखना चाहिए.भगवान कि पूजा कैसे हो,कैसा अनुभव हो,इस सम्बन्ध को कैसे महसूस करें.यह प्राथमिक स्तर नहीं है.यह उच्चतम है औत उच्च अभ्यासियों हेतु है.पूजा कैसे हो और क्या अनुभव किया जाए.यह सर्वोच्च विषय है जो कि हमें अपने मास्टर से ही सीखना चाहिए.

ये वे विभिन्न चीज़े हैं जिन्हें हमें सीखना है:उचित तरीके से किस प्रकार जिया जाए,तरीका क्या है और लक्ष्य क्या है.उसकी कृपा और आध्यात्मिक गुरु की कृपा से ,हम ठीक प्रकार से विकास कर सकते हैं.किन्तु हमें पठन और प्रदर्शन हेतु गंभीर भाव रखना होगा.और इस प्रकार आप दूसरों के भाग्य से शिकायत भाव नहीं रखेंगे बल्कि आप दूसरों की स्थिति को सुधारने में सहायत करने के एक सक्रिय साधन बन जाते हैं.
[*]”भगवद्गीता”२.३०



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